(ये लेख बीबीसी से साभार लिया गया है...परमाणु करार की जटिलता इस लेख से कुछ हद तक सुलझती है...अगर इस मसले पर सरकार गिरती है तो आने वाले समय में ये चुनावी मुद्दा बनेगा... और तब इस मसले में दिलचस्पी ना लेने वालों को भी इसकी बारीकियों को समझना ही पड़ेगा..इस लेख के लिए हम आप बीबीसी की इस लिंक http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/08/070818_nuclear_vivechana.shtml पर भी सीधे जा सकते है...)
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भारत और अमरीका के बीच दो साल तक कई दौर की बातचीत, गहन-चर्चा और विचार-विमर्श के बाद असैन्य परमाणु सहयोग समझौता हो गया है. परमाणु सहयोग समझौते पर दोनों ही देशों में विरोध की आवाज़ें उठ रहीं हैं. सवाल यह है कि यह समझौता भारत के लिए क्या मायने रखता है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था कि चाहे कुछ भी हो, अमरीका के साथ हुआ समझौता रद्द नहीं होगा. प्रधानमंत्री का यह बयान अब उनके लिए एक राजनीतिक मुसीबत बन गया है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यूपीए) सरकार पर संकट के बादल गहराने लगे हैं. वामपंथी दलों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यूपीए से उनके रिश्ते टूटने की कगार पर हैं. यूपीए से संबंधों पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता प्रकाश कारत कहते हैं कि खटास तो आई है लेकिन अभी तलाक़ का वक़्त नहीं आया है. वहीं विपक्षी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) और संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन(यूएनपीए) या तीसरे मोर्चे को प्रधानमंत्री जयचंद की तरह नज़र आ रहें हैं जो अपने स्वार्थ के लिए देश हित को ताक पर रख रहें हैं.
फ़ायदा-घाटा
इस समय यह समझना होगा कि भविष्य में इस समझौते से देश को क्या नफ़ा-नुकसान होगा. सबसे पहला सवाल यह उठ रहा है कि क्या समझौते को मानकर भारत ने परमाणु परीक्षण करने का अपना विशेषाधिकार गंवा दिया है क्योंकि परीक्षण करते ही समझौता रद्द हो जाएगा. विज्ञान पत्रिका 'साइंस' के पत्रकार पल्लव बागला कहते हैं, “इस समझौते को दो लोगों के बीच हो रही शादी की तरह समझना चाहिए. अब शादी होने पर तलाक़ का भी डर होता है. आप तलाक़ के डर से शादी ही न करें ऐसा ठीक नहीं है. अगर आप आगे ही नहीं बढ़ना चाहते तो फिर तो आप बढ़ ही नहीं सकते और 1970-80 के दशक की पुरानी तकनीक में ही फँसे रह जाएँगे.” इस 123 समझौते में परीक्षण पर उठ रहे सवालों पर सरकार का कहना है कि फ़िलहाल हमें परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और परीक्षण के समय हम उस स्थिति से भी निपट लेंगे. पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण से जुड़े वैज्ञानिक के संथानम कहते हैं, “भविष्य में हम दोबारा परमाणु परीक्षण कर तो सकते हैं लेकिन उसके परिणाम और प्रभावों को भी देखना होगा. जैसे मई,1998 में लोग कहते थे कि इसके परिणाम और प्रतिबंध इतने भारी होगें कि हम मुसीबत में फँस जाएँगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था मज़बूत थी. समझौते को लेकर अगर विचारधारा के स्तर पर बात करेंगे तो हम इसी तरह विवाद करते रहेंगे.” के संथानम तो इस मुद्दे पर संतुष्ट दिखते हैं लेकिन दूसरे वैज्ञानिक इस करार से संतुष्ट नहीं हैं.
समझौता
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि 123 समझौते में मुद्दा परमाणु परीक्षण करने के अपने अधिकार को किसी दूसरे देश के हाथों में सौंपने का है. सामरिक मामलों के जानकार भरत कर्नाड इस समझौते का विरोध कर रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “मनमोहन सिंह अपने ही एजेंडे पर चल रहे हैं. वो चाहते हैं कि किसी भी तरीके से परमाणु सहयोग को बढ़ावा मिले. प्रधानमंत्री दूर की नहीं सोच रहे हैं. वो अपनी इस बात की रट लगाए हैं कि हमें निकट भविष्य में परमाणु परीक्षण की ज़रूरत नहीं है और जब तक ज़रूरत नहीं है तब तक परमाणु सहयोग जारी रहे.” भरत कहते हैं, “ परमाणु हथियार विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें परीक्षण करना ही पड़ेगा. जिन हथियारों के 1998 में परीक्षण हुए थे, उन सबके डिज़ाइन परीक्षण में कामयाब नहीं हुए थे. जैसे थर्मल न्यूक्लियर डिवाइस (जिसे हाईड्रोजन बम भी कहते हैं) की डिज़ाइन परीक्षण में ठीक से सफल नहीं हुई थी. मामला यही है कि आप परीक्षण कब करेंगे. ऐसा तो नहीं है कि अब परीक्षण करना ही नहीं हैं.” इससे साफ होता है कि इस समझौते का असर भारत के सामरिक कार्यक्रमों पर पड़ेगा. हालाँकि इस समझौते के समर्थक कहते हैं कि समझौते में इस बात पर ध्यान दिया गया है कि कहीं ऐसा न हो कि परमाणु परीक्षण होने की दशा में फौरन सभी परमाणु संयंत्र बंद हो जाएँ. परीक्षण से पहले एक साल का नोटिस दिया जाएगा और अमरीका इस बात की जाँच करेगा कि ऐसी कौन सी परस्थितियाँ हैं जिनमें भारत को परमाणु परीक्षण करना पड़ रहा है और यह निर्णय सही है या नहीं?
यहाँ एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या अब अमरीका यह तय करेगा कि भारत के परमाणु परीक्षण करने का फ़ैसला सही था या नहीं?
तकनीकी
वामदलों या भाजपा को इस सवाल पर कहना है अमरीका को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता. कुछ जानेमाने वैज्ञानिक भी इसे अमरीका के चंगुल में फँसना बता रहे हैं.
लेकिन परमाणु समझौते के लागू होने पर कुछ फ़ायदे एकदम से नज़र आने लगेंगे. ये ऐसे फ़ायदे हैं जो वैज्ञानिकों और उच्च तकनीक क्षेत्र में काम करने वालों के लिए अहम होंगे. इस बारे में पल्लव बागला का कहना है, “भारत पर 1974 के बाद से तकनीकी प्रतिबंध लगे हुए थे और देश का वैज्ञानिक ढांचा उन्नत तकनीकी से पूरी तरह अछूता रह गया था. भारत पर अंतरिक्ष और कंप्यूटर जैसे उच्च तकनीकी वाले क्षेत्रों में प्रतिबंध लगा हुआ था. वो कहते हैं, "दूसरी बात यह है कि परमाणु अप्रसार संधि(एनपीटी) पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बैठने के लिए एक सीट तो मिल ही रही है. शुरू में आपको बैठने के लिए कुर्सी की जगह स्टूल ही मिल रहा है. लेकिन आपको वहाँ बैठने की जगह तो दी ही जा रही है. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा फ़ायदा है." लेकिन भरत कर्नाड का मानना है कि हमें परमाणु समझौते से यह आशा बिल्कुल नहीं करनी चाहिए कि इससे भारत कोई विश्वशक्ति बन जाएगा और शायद प्रधानमंत्री यथार्थ नहीं देख पा रहे हैं. भरत कर्नाड कहते हैं, “प्रधानमंत्री और उनकी नीति के समर्थक जो मीडिया में भारी संख्या में मौजूद हैं उन सबका मानना है कि अगर हम अमरीका के नज़दीक हो जाए तो अमरीका हमें एक बड़ी शक्ति बनने में मदद करेगा. एक बड़ा मुल्क़ दूसरे मुल्क़ को अपने अधीन बनाने की ही कोशिश करता है."
वो कहते हैं, "अमरीका साफ-साफ कह रहा है और अमरीकी कार्यपालिका और उनके हाइड एक्ट में भी कहा गया कि भारत को परमाणु परीक्षण करने की स्थिति में तकनीकी भी नहीं मिलेगी. हम जो ईंधन आधारित उच्च तकनीकी हस्तांतरण की बात कर रहे हैं वो कुछ भी नहीं मिलने वाला.” भरत कर्नाड यहाँ तक कहते हैं, “मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मनमोहन सिंह और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बीच व्यक्तिगत संबंध इतने अच्छे हैं कि मनमोहन सिंह बाकी सब कुछ भूल बैठे हैं और वो राष्ट्रीय हितों को छोड़कर व्यक्तिगत हित देख रहे हैं.”इस पूरी बहस में किसी का ध्यान इस ओर नहीं है कि यह असैन्य परमाणु ऊर्जा समझौता है और भारत की ऊर्जा ज़रूरतें कितनी हद तक पूरी करेगा. ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि यह समझौता भारत की ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने के लिहाज़ से काफ़ी नहीं है और कभी भी पूरे देश में कुल बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली का हिस्सा पाँच से 10 फ़ीसदी से अधिक नहीं होगा. के संथानम का मानना है कि इस समझौते से भारत की यूरेनियम की ज़रूरत कुछ हद तक पूरी होगी.
बाज़ार
यूरेनियम मूँगफली की तरह खुले बाज़ार में तो खरीदा नहीं जा सकता इसलिए बिना परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए इस समझौते से ही भारत यूरेनियम बाज़ार से खरीद सकेगा. जानकार इस ओर भी इशारा कर रहे हैं कि इस परमाणु संधि के साथ व्यापार हित न जुड़ें हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. अंग्रेज़ी अख़बार 'बिज़नेस स्टैंडर्ड' के शांतनु गुहा रे कहते हैं कि व्यापार जगत की इस समझौते पर विशेष नज़र है.
वो कहते हैं, “अगर परमाणु समझौता हो जाता है तो हमारे देश में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए काफ़ी विदेशी तकनीकी की ज़रूरत होगी. ऐसी तकनीकों को विकसित करने के मामले में बाकी दुनिया के मुक़ाबले अमरीकी कंपनियाँ काफ़ी आगे हैं. अमरीका यह उम्मीद कर रहा है कि वह अगले बीस वर्षों में भारतीय बाज़ार से कम से कम 150 बिलियन डॉलर का व्यवसाय करे.” लेकिन के संथानम का मानना है कि अमरीकी उद्योग के फ़ायदे के लिए ही समझौते पर ज़ोर दिया जा रहा हो, ऐसा नहीं है. उनके अनुसार फ़िलहाल अमरीकी उद्योग यह फ़ायदा उठाने की स्थिति में नहीं है. के संथानम कहते हैं, “अगर भारत में परमाणु संयंत्र स्थापित होंगे तो मुख्य रूप से फ़ायदा रूस और उसके बाद फ्रांस को होगा. मुझे नहीं लगता कि अमरीका को इससे फ़ायदा होगा क्योंकि पिछले 30-35 वर्षों से अमरीकी परमाणु बाज़ार सुस्त है. उसने कोई भी परमाणु रिएक्टर नहीं बनाया है. जबकि फ्रांस और रूस ने इस क्षेत्र में प्रगति की है. हमें समझौते का विश्वासपूर्वक स्वागत करना चाहिए.”फ़िलहाल इस समझौते पर राजनीति हावी हो गई है. वामपंथी दल जो पहले भारत के परमाणु परीक्षणों के ख़िलाफ़ बोलते रहे हैं अब इस अधिकार के छीने जाने के डर से चिंतित हैं. भाजपा जिसने इस समझौते की नींव रखी, आज उसकी क़ब्र खोदना चाहती है. उसे इस मुद्दे पर यूपीए सरकार गिरती हुई और मध्यावधि चुनाव नज़र आते हैं. लेकिन भारत की आम जनता के लिए यह अभी भी कोई मुद्दा नहीं है. परमाणु मुद्दे पर विचारधारा और व्यावहारिकता के बीच झूल रहे प्रतिपक्ष का विरोध महज औपचारिकता है या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के परिपक्वता की निशानी?
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