रविवार, 30 सितंबर 2007

आम आदमी हूं...

लोग कहते हैं कि अभी
मैं नासमझ हूं..
दुनिया देखने की
समझ नहीं हैं मुझमें...
लेकिन
मै भांप लेता हूं
लोगों के गलत
इरादे..
वायदों से आती
झूठ की बू
को पहचानता हूं मैं...
बाज़ार के समानों
में देख लेता हूं
फायदों के पनपते
अमानवीय रिश्ते को ..
पल पल मरती
अभिव्यक्ति के बीच
एक कोने की तलाश में
दिख जाते हैं
मुझे लोग
लेकिन फिर भी
लोग कहते हैं...
मैं नासमझ हूं
क्योंकि
मैं एक
आम आदमी हूं...