सोमवार, 16 जून 2008

माफ़ करना बाबूजी...पार्ट १

उस खिड़की से... दूर दूर तक पेड नज़र आते थे... लगता था कि पूरे शहर को पेड़ से घेर दिया गया हो... शाम को सूरज लाल होकर गुम होने तक उस खिड़की से झांकता रहता.. शाम जब रात की करवट लेती तो पूरा शहर रोशनी की चादर तान लेता.. अक्सर ऐसे वक्त उपन्यास के कुछ पन्ने खुद ब खुद पलट जाते... और निर्मल वर्मा का एकाकीपन मन के गहरे तक उतर जाता... चाय की मिठास में वक्त घुलते घुलते नींद के आगोश में जाने को बेकरार हो उठता....लेकिन इस बीच कमबख्त नीद कब छत पर टहलने चली जाती पता नहीं चलता... चांद की रोशनी में यादें बार बार बचपन के करवट हो लेतीं...और जब अपने याद आते तो मन बेचैन हो जाता... इस बेचैनी के बीच रात और चाय का एक अजीब सा रिश्ता बन गया था... रातें उसके लिए खुली किताब की तरह थी.. जिसपर वो बार बार कुछ लिखकर मिटाता रहता... दोस्तों के फोन भी अब ज्यादा नहीं आते थे... अब वो अक्सर उपन्यासों से बात करता.. कविताओं से बोलता.. और चाय के साथ गजले सुनकर रात काट देता.. सुबह से उसे एक अनजाना सा डर लगने लगा था... सुबह का मतलब था नौकरी की तलाश में दर दर की ठोकर...ऐसा करते करते चार महिने और चार दिन गुजर चुके थे...पुरानी नौकरी से कमाया पैसा अब खत्म होने को था...दिल्ली में रहना अब मुश्किल था.. कभी कभी तो सब्र जबाब दे जाता... लेकिन बीमार रिटायर पिता की चिंता उसे दिल्ली की दिक्कत के बीच रोक देती... जब तक पैसे कमाए तब तक ज्यादात्तर पैसा बाबूजी को मनीआर्डर कर दिया...लेकिन दो बार से मनीआर्डर नहीं भेजा...हां कुछ बहाने और उम्मीदें जरुर अपने बूढे बाबूजी तक पहुंचा दी.. बाबूजी भी अब अक्सर बीमार रहने लगे थे...मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद भी मां की आंखों का धुंधलापन गया नहीं था.. भला हो उस छोटकी का जिसने घर संभाल रखा था.. .कहने को वो घर पर सबसे छोटी थी... लेकिन भाई का सारा फर्ज अपने छोटे कंधे पर उठा रखा था... इस साल गांव के सरकारी स्कूल में नवें में दाखिला लिया था... पिछली बार बाबूजी के सारे पैसे छोटकी का दाखिला करने में खत्म हो गए... आगे की उम्मीद बेटे के मनीआर्डर पर टिक गई थी.. लेकिन वो बेटा....क्या बताता वो बाबूजी से...कि वो दिल्ली में आजकल नौकरी के लिए धक्के खा रहा है... क्या कहता बाबू जी से कि देखिए बाबूजी भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा ना बनकर मैने गलती की.. या फिर बाबू जी समाज बदलने निकला आपका लड़का धीरे धीरे खुद बदल रहा है... बाबू जी पुराने कम्यूनिस्ट थे... व्यवस्था के भ्रष्ट तंत्र से उन्हें चिढ़ थी..जब तक हाथ पैर चले लेनिन और मार्क्स को समझने और समझाने की कोशिश करते रहे...लेकिन बूढ़ापे के आगे उनका कम्यूनिज्म हार गया... वो सपना टूट गया...जो जोशीले भाषणों में बार बार दिखता था...गांव के बेकार लोग जिन्हें बाबू जी समाज का कोढ़ कहते थे शहर जाकर खूब पैसे जुटा लाए थे... गांव के खेतों मे शाखाएं लगनी शुरु हो गईं थीं.. रहमान और शकील चाचा से गांव के लोगों ने दूरी बना ली... बेबस आंखो से बाबू जी कम्यूनिज्म के गांव में पहुंचने का इंतजार करते रहे... जब बाबूजी का शरीर साथ देने से इंकार करने लगा तो ...अपने सपनों का बोझ उन्होने बेटे का कंधे पर रख दिया... बेटा दिल्ली में था...और एक अखबार में कम्यूनिस्ट पार्टी कवर करता था...बाबू जी इसी बात से खुश थे... लेकिन उन्हें क्या पता था कि अखबार के दफ्तरों में साम्यवाद नहीं चलता.. यहां बॉसिजिज्म का सिक्का बोलता है... जिसके लिए सब मशीन हैं... उनका बेटा भी...(आगे जारी)