सोमवार, 29 दिसंबर 2008

मेरा कबूलनामा ३...दिल से


बाबा और दादी
तारीख २५ दिसम्बर थी..साल १९९२ था..बाबा के गुजरने की खबर आई..मुझे याद है हम क्रिकेट खेल रहे थे (थोड़ा थोड़ा याद है) हमें किसी ने आकर बताया कि फैजाबाद चलना है...कहा तो ये गया कि बाबा की तबीयत काफी खराब है...लेकिन मुझे उसी वक्त कुछ खटका लग गया...बाबा ने हम भाईयों से कभी प्यार से दो लफ्ज नहीं बोले...लेकिन वो एक अच्छे इंसान थे...पूजा पाठ करते थे...ईमानदार थे...और सबसे बड़ी बात थी उनकी गांव नें सभी लोग इज्जत करते थे...इतने सालों बाद भी उनका चेहरा मेरे जेहन में है...लेकिन उनसे कभी उतनी आत्मीयता नहीं हो पाई...जितनी मेरी दादी से थी...दादी का नाम मनराजी देवी था...बहुत पूछने पर बहुत शरमा कर वो अपना नाम बताती थी...वो बिल्कुल पढ़ी लिखी नहीं थी...उन्हे ना तो घड़ी देखना आता था...और ना ही दुनियादारी से ही कोई मतलब था...उनके होने या ना होने का कोई फर्क कम से कम घर के लोगों के बीच कभी नहीं दिखा...लेकिन मैने उनकी आंखों में ममता देखी...बड़े पापा या चाचा के आने पर वो दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती थी...लेकिन उनकी इस ममता को कभी पुचकार नसीब नहीं हुई...बाबा और दादी के बीच कभी बात हुई हो याद नहीं आता...शायद उनको लेकर यही उपेक्षा मुझे दादी के करीब लाती थी...वो मेरी दादी थी...जिनकी गोद में सर रख देता था तो बड़ी देर तक सर सहलाती थी.. उनकी बातें समझ में नहीं आती थी फिर भी सुनता था...उनको ए बी सी डी सिखाता था...वो हंसती थी..टूटी फूटी जुबान में बतती थी कि उन्होने अंग्रेजों को देखा था....लेकिन इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं पता था...शायद घर की चारदीवारी ने उन्हे उतनी सहूलियत नही दी कि वो कुछ जान पाती...घर पर लोग कहते थे कि उनमें समझ कम है...लेकिन वो मेरी दादी थी..उनके बारे में आज सोचता हूं तो आंखे भर आती हैं...आज भी अफसोस होता है कि उनके आखिरी वक्त मैं उनके साथ नहीं था...लेकिन ये जरुर कबूल करता हूं कि उन्हें दुनिया से और न्याय मिलना चाहिए था...दरअसल ये बातें मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आपकी जिंदगी बहुत सारी चींजों से बनती है...आपकी जिंदगी के एक एक पात्र का आप पर असर होता है...बाबा और दादी मेरी जिंदगी का ऐसा ही हिस्सा हैं...लोग बचपन में मेरी दयालुता देखकर जब मुझे अपने बाबा की तरह बताते थे तो मुझे अच्छा लगता था...और जब दादी से मेरे लगाव की बात कोई करता था...तो भी मुझे अच्छा लगता था...साफ था कि कहीं ना कहीं मेरे बाबा और दादी का हिस्सा मेरे अंदर गहरे तक था...

मेरा कबूलनामा...दिल से 2

साम्प्रदायिकता और मै
जिंदगी की कहानी कहना काफी मुश्किल है.. .कभी कभी चीजें काफी उलझी सी दिखती है...कभी लगता है जिंदगी किसी खुली किताब की तरह है...इस बार उसी जिंदगी के पन्नों को पलटने की कोशिश कर रहा हूं...शायद किसी पन्ने से अपने लिए कुछ तलाश सकूं...याद करता हूं तो बचपन में ऐसा कुछ याद नहीं आता जो रोमांच से भर दे.. हां जमकर क्रिकेट जरुर खेली...हालांकि ना तो बैटिंग ही अच्छी थी और ना ही बॉलिंग...बॉलिग का एक्शन तो देखकर लोग मुझ पर हंसते भी थे...लेकिन जब तक क्रिकेट खेलने की उम्र थी खेली..अघोषित तौर पर कैप्टन भी रहा....लेकिन कब खेल जिंदगी में पीछे छूट गया...पता नहीं चला...दूसरा जो काम मुझे याद आता है वो है अखबार चाटना...उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं होगी...छठी क्लास से अखबार पढ़ने का चस्का लग गया था...हां बस पन्ने बदलते रहे...पहले खेल पेज फिर मनोरंजन की खबरें और फिर शहर को जानने के लिए पेज नंबर ३...
बात १९९० की है... इस दौरान अयोध्या में भी काफी कुछ चल रहा था...कारसेवक अयोध्या पहुंच रहे थे...कहा जा रहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ कर वहां भव्य राममंदिर बनना चाहिए...जय श्री राम का नारा हर जुबान पर था...हर दीवारें नारों से पटी थीं...मुझे वो नारे अभी भी याद हैं काफी दिनों तक पुरानी दीवारों पर वो नारे टिके भी रहे... बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का...रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे...हजारों की संख्या में कारसेवकों का अयोध्या पहुंचने का सिलसिला चल रहा था...अयोध्या छावनी में तब्दील कर दी गई थी....अयोध्या में पसरे खौफ का असर लखनऊ तक दिखा करता था.. अगर मैं गलत नहीं हूं तो उस वक्त अशोक प्रियदर्शनी लखनऊ के डीएम हुआ करते थे...हमारे स्कूल कालेज लगातार बंद चल रहे थे...सरकार मुलायम सिंह यादव की थी...वही मुलायम जिनका पहली बार नाम सुनकर हमें बड़ी हंसी आई थी.. तब शायद समाजवादी जनता पार्टी की सरकार थी...फिलहाल ३१ अकटूबर को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाई गई...सैकड़ों कारसेवक मारे गए...एक नवम्बर के अखबार कारसेवको के खून से रंगे थे...सभी की हेडलाइन एक से बढ़कर एक थी...एक अखबार ने हेडिंग लगाई थी कि कारसेवको के खून से लाल हुई सरयू...अब पता नहीं की कोई नदी कितने लोगों के मारे जाने से लाल हो सकती है....लेकिन ये तो तय था कि अयोध्या में जो कुछ हुआ है उससे लोग आहत हैं....खासकर हिन्दू....लेकिन इसी गोलीकांड ने मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों के बीच हीरो बना दिया था...मुसलमानों को लगा कि इस देश में कोई तो ऐसा नेता है जो मस्जिद बचाने के लिए अपना सबकुछ झोंक सकता है...खुद मुलायम ये ऐलान कर चुके थे कि मस्जिद के पास कोई परिन्दा भी पर नहीं मार सकता है...ऐसा हुआ भी....कारसेवक मस्जिद तक नहीं पहुंच पाए...लेकिन इस पूरी घटना ने देश को साम्प्रदायिक खांचे में बांट दिया...आज उस माहौल को याद करता हूं तो लगता है कि वो समय अगर मुलायम को राजनीतिक पहचान दिलाने के लिहाज से अहम था...तो बीजेपी को भी एक मॉस सपोर्ट उसी वक्त मिला...और देश खतरनाक तौर पर साम्प्रदायिक खांचे मे बंट गया...मैं भी बंटा...कुछ कुछ बीजेपी की तर्ज पर... मैं भी उस भीड़ में शुमार था जो मुसलमानों को कोसते हैं...
इसके घटना के बाद दो बड़े चेंज हुए...मुलायम सिंह यादव सत्ता से बेदखल हो गए...और बाद में हुए चुनाव में बीजेपी बड़े बहुमत के साथ यूपी समेत पांच राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हुई...यूपी मे कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने.. मेरे ख्याल से ये बीजेपी का सबसे बेहतरीन दौर था...लेकिन एक और घटना इस बीच में हुई राजीव गांधी की मौत...कहते हैं इस मौत की सहानुभूति में कांग्रेस केन्द्र में आने में कामयाब रही...और नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने...इसके बाद काफी दिनो तक फिजा में सम्प्रदायिकता घुली रही...तब तक जब तक ६ दिसम्बर १९९२ को बाबरी मस्जिद गिरा नहीं दी गई...मुझे वो दिन आज भी याद है....अयोध्या में मस्जिद पूरी तरह गिर चुकी थी...लेकिन शाम को दूरदर्शन के समाचार में हेडलाइन थी कि बाबरी मस्जिद के गुंबदों को काफी नुकसान ..अगले दिन अखबारों में बाबरी मस्जिद के गिरने की जो खबर छपी...उसके बाद तो पूरे देश में दंगे शुरु हो गई...उसी साल मेरे बाबा बीमार पड़े थे...१९९२ की बात है... उन्हें कैंसर हो गया था...पीजीआई में काफी दिनों तक सिकाई हुई...जिस दिन मस्जिद गिराई जा रही थी उसी दिन बाबा को लेकर मम्मी पापा अयोध्या गए थे...सामने जायसवाल अंकल की गाड़ी किराए पर ली गई थी...उसके कुछ दिनों बाद २५ दिसम्बर को बाबा चल बसे...अयोध्या में मचे हंगामे की वजह से हमारे स्कूल बंद थे...मुझे फैजाबाद में बिताए कोहरे भरे दिन आज भी याद हैं....एक तरह से कहूं तो वो कोहरा मेरे अंदर तक साम्प्रदायिक सोच के तौर पर काफी दिनों तक रहा...

रविवार, 28 दिसंबर 2008

मेरा कबूलनामा...दिल से...१


इसे आप मेरा कबूलनामा कह सकते हैं...कुछ लोगों को मेरे इस लिखे में मेरा फ्रस्टेशन नजर आ सकता है...लेकिन यकीन मानिए मैं केवल इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं नहीं चाहता मेरी गिनती जिंदा लाशों में की जाए...मेरा भरोसा आज भी लोगों पर कायम है..मैं लोगों पर आज भी यकीन करता हूं...दुनिया मुझे सरल लगती है...इसलिए आज तक किसी को गाली देने की नौबत नहीं आई...किसी से दो दो हाथ करने के हालत पैदा नहीं हुए...फिर भी जिस दौर से गुजर रहा हूं ज्यादात्तर समय चाय की दुकान पर बीतता है...लोगों के मुंह से दुनिया की कांस्परेसी के बारे में सुनता हूं...हां में हां भी मिलाता हूं लेकिन पता नहीं क्यों यकीन नहीं होता..लगता है हम सब यकीन ना करने की बीमारी से जूझ रहे हैं...समझ में नही आता लोगों को दूसरो के खिलाफ साजिश रचने का समय कैसे मिल जाता है...जब लोगों से ये मासूम सवाल पूछता हूं तो लोग कहते हैं सुबोध बाबू लगता है अभी दुनिया नहीं देखी..लेकिन जिस पेशे में हूं...वहां इतनी तो स्पेस है कि चीजों को समझ सकता हूं...और बस इसी कोशिश में लगा हूं...मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि मेरी कोशिश इस समझ को यकीन से कहीं आगे ले जाने की होगी...मैं लिखूंगा और दिल खोल कर लिखूंगा...अपने गुनाह कबूल करुंगा...खुद को बताने की कोशिश करुंगा कि एक कहानी दो टुकड़ों में आकर अधूरी क्यों रह गई...कविताओं के पीछे वाकई भावना थी या फिर केवल कोरी तुकबंदी...ये मेरे दिल की बात होगी...जिसमें सभी का दखल होगा...मेरी पत्नी से लेकर मेरे भाई और मेरे दोस्तों तक का...

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

दिल से...रोज पढ़ें...


(दरअसल कुछ बातें दिल को छू जाती हैं...१७ दिसम्बर को दैनिक भास्कर में छपे सम्पादकीय में जाने पहचाने विचारक स्टीफन आर कवी का इंटरव्यू छपा था...उन्होने कुछ ऐसी बातें कही... जिसने मुझे काफी प्रभावित किया...उनके इंटरव्यू के कुछ अंश यहां कोड कर रहा हूं...)
सवाल...जिंदगी को कैसे देखें....
स्टीफन...
शरीर के बारे में सोचिए कि आपको दिल का दौरा पड़ चुका है...अब उसी हिसाब से खानपान और जीवनचर्या तय करें...
दिमाग के बारे में सोचिए कि आपकी आधी पेशेवर जिंदगी सिर्फ दो साल है...इसलिए इसी हिसाब से तैयारी करें...दिल के बारे में ये मानिए कि आपकी हर बात दूसरे तक पहुंचती है...लोग आपकी बात छिपकर सुन सकते हैं...और उसी इसी हिसाब से बोलें...
जहां तक भावना का सवाल है...ये सोचिए कि आपका ऊपरवाले के साथ हर तीन महिने में सीधा साक्षात्कार होता है...इसी हिसाब से जीवन की दिशा तय करें...

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

टोबा टेक सिंह - मंटो की कहानी

बंटवारे के दो तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि इखलाकी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए...यानी जो मुसलमान पागल, हिंदुस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हें पकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हे हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए.. मालूम नहीं यह बात माक़ूल थी या ग़ैर-माक़ूल, बहरहाल दानिश-मन्दों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर उधर ऊंची सतह की कान्फ्रेंसे हुईं ,और बाल-आख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया..अच्छी तर‌ह छानबीन की गई। वह मुसलमान पागल जिन के लवाहिक़ीन हिंदुस्तान में ही में थे,वहीं रहने दिए गए थे, जो बाक़ी थे उन को सर‌हद पर रवाना कर दिया गया.. यहां पाकिस्तान में चूंकि क़रीब क़रीब तमाम हिंदू सिख जा चुके थे, इसलिए किसी को रखने रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू सिख पागल थे, सब के सब पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुंचा दिए गए। उधर का मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब उस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिह-मी-गूइयां होने लगीं। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बा-क़ाइदगी के साथ ” ज़मीनदार ” पढ़ता था उस से जब उस के एक दोस्त ने पूछा ” मोलबी साब , यह पाकिस्‌तन क्या होता है”,उस ने बड़े ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद जवाब दिया,” हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बन हैं।”यह जवाब सुन कर उस का दोस्त मुत्‌मईन हो गया.. उसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा “सरदार-जी हमें हिंदुस्तान क्यूं भेजा जा रहा है हमें तो वहां की बोली नहीं आती?”दूसरा मुस्कुराया ” मुझे तो हिंदुस्तोड़ो की बोली आती है — हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं। ”एक दिन नहाते नहाते एक मुसलमान पागल ने ” पाकिस्तान जिंदाबाद ” का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया । बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे। उन में अक्सरियत ऐसे क़ातिलों की थी जिन के रिश्तेदारों ने अफ़सरों को दे दिला कर पागलख़ाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जाएं। यह कुछ कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्यूं तक़सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है? लेकिन सही वाक़िआत से यह भी बे-ख़बर थे। अख़बारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उन की गुफ़्‌तगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आद्मी मुहम्मद अली जिन्ना है जिस को काइदे आजम कह्ते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक `इलाहिदा मुल्क बनाया है जिस का नाम पाकिस्तान है। यह कहां है , उस का मह्‌ल्‌ल-ए वुक़ू` क्या है। उस के मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागलख़ाने में वह सब पागल जिन का दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था इस मख़्मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में? अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है? अगर वह पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अरसा पहले यहीं रह्ते हुए भी हिंदुस्तान में थे । एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान, और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़ियादा पागल हो गया। झाड़ू देते देते एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टह्‌नी पर बैठ कर दो घंटे मुसल्सल तक़्‌रीर करता रहा जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया धमकाया गया तो उस ने कहा — ” मैं हिंदुस्तान में रह्‌ना चाहता हूं न पाकिस्तान में — मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा। ”बड़ी मुश्किलों के बाद जब उस का दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिन्दू सिख दोस्तों से गले मिल मिल कर रोने लगा, इस ख्याल से उस का दिल भर आया था कि वह उसे छोड़ कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।
एक एम एस सी पास रेडियो इन्जीनियर में जो मुसल्मान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रह्‌ता था यह तबदीली नमूदार हुई कि उस ने तमाम कप्‌ड़े उतार कर दफ़`अदार के हवाले कर दिए और नंग धड़ंग सारे बाग़ में चलना फिरना शुरू` कर दिया।
चन्योट के एक मोटे मुसल्मान पागल ने जो मुस्लिम लीग का सर-गर्म कार्कुन रह चुका था और दिन में पन्द्रह सोलह मर्तबा नहाया करता था यक-लख़्‌त यह आदत तर्क कर दी। उस का नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उस ने एक दिन अपने जंगले में एलान कर दिया कि वह काइदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना है। उस की देखा देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंघ बन गया। क़रीब था कि उस जंगले में ख़ून ख़राबा हो जाए मगर दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार दे कर `अलाहिदा `अलाहिदा बंद कर दिया गया। लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था जो मुहब्बत में नाकाम हो कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शह‌र की एक हिन्दू लड़्‌की से उसे मुहब्बत हो गई थी। गो उस ने उस वकील को ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस को नहीं भूला था। चुनांचे उन तमाम हिन्दू और मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था जिन्होने मिल मिला कर हिंदुस्तान के दो टुक्‌ड़े कर दिए। — उस की मह्‌बूबा हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरु हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे। उस को हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा। उस हिंदुस्तान में जहां उस की महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाह्‌ता था। इसलिए कि उस का ख्याल था कि अमृतसर में उस की प्रेक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इन्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद कर के अंग्रेज चले गए हैं तो उन को बहुत सदमा हुआ वह छुप छुप कर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तगू करते रह्‌ते कि पागलख़ाने में उन की हैसियत किस क़िस्म की होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा। ब्रेकफ़ास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए बलडी इन्डियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करना पड़ेगी? एक सिख था जिस को पागल-ख़ाने में दाख़िल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक़्त उस की ज़बान से यह `अजीब-ओ-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुन्‌ने में आते थे ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी लालटेन।” दिन को सोता था न रात को। पहरेदारों का यह कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में वह एक लहज़े के लिए भी नहीं सोया। लेटता भी नहीं था। अलबत्ता कभी कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर वक़्त खड़े रहने से उस के पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फूल गई थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद लेट कर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान,पाकिस्तान और पागलों के तबादिले के मुत्तालिक जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्‌तगू होती थी तो वह ग़ौर से सुन्‌ता था। कोई उससे पूछ्‌ता कि उस का क्या ख़्याल है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट। लेकिन बाद में ” आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट” की जगह ” आफ़ दी टोबा टेक सिंघ गवर्न्मन्ट” ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है जहां का वह रह्‌ने वाला है। लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे वह खुद इस उलझावों में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिंदुस्तान में चला जाए। या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए। और यह भी कौन सीने पर हाथ रख कर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब ही हो जाएं।
इस सिख पागल के केस छिदरे हो के बहुत मुख़्तसर रह गए थे चूंकि बहुत कम नहाता था इस लिए दाढ़ी और सर के बाल आपस में जम गए थे। जिन के बाइस उस की शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। मगर आदमी बेज़रर था। पन्द्रह बरसों में उस ने कभी किसी से झगड़ा फ़साद नहीं किया था। पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे वह उस के मुत्तलिक इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं। अच्छा खाता पीता ज़मीनदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया। उस के रिश्तेदार लोहे की मोटी मोटी ज़ंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागल-ख़ाने में दाख़िल करा गए। महीने में एक बार मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैरख़ैरियत दर्याफ़्त करके चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा। पर जब पाकिस्तान,हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उन का आना बन्द हो गया। उस का नाम बिशन सिंघ था मगर सब उसे टोबा टेक सिंघ कह्‌ते थे। उस को इतना मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है,महीना कौन सा है,या कितने साल बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उस के अज़ीज़-ओ-अक़ारिब उससे मिलने के लिए आते थे तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह दफादार से कह्‌ता कि उसकी मुलाक़ात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता,बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और सर में तेल लगा कर कंघा करता,अपने कपड़े जो वह कभी इसतेमाल नहीं करता था निकलवा के पहनता और यूं सज बन कर मिलने वालों के पास जाता। वह उससे कुछ पूछ्ते तो वह ख़ामोश रहता या कभी कभार ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी लाल्टेन ” कह देता। उस की एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गई थी। बिशन सिंघ उस को पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देखकर रोती थी , जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बह्‌ते थे। पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है? जब इत्‌मीनान-बख़्‌श जवाब न मिला तो उस की कुरेद दिन-बदिन बढ़ती गई। अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी। पह‌ले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं,पर अब जैसे उस के दिल की आवाज़ भी बन्द हो गई थी जो उसे उन की आमद की ख़बर दे दिया करती थी। उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएं जो उस से हमदर्दी का इज़हार करते थे और उसके लिए फल,मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह अगर उन से पूछ्ता कि टोबह टेक सिंघ कहां है तो वह यक़ीनन उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। क्योंकि उस का ख्याल था कि वह टोबा टेक सिंघ ही से आते हैं जहां उस की ज़मीनें हैं। पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को ख़ुदा कह्‌ता था। उस से जब एक रोज़ बिशन सिंघ ने पूछा कि टोबा टेक सिंघ पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में तो उसने हस्ब-ए`आदत क़हक़हा लगाया और कहा “वह पाकिस्तान में है न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं दिया। “ बिशन सिंघ ने इस ख़ुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वह हुक्म दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो मगर वह बहुत मसरूफ़ था इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा “ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ वाहे गूरू जी दा ख़ालसा ऐंड वाहे गूरू जी की फ़तह — जो बोले सो निहाल,सत सरी अकाल।”
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंघ का एक मुसलमान जो उसका दोस्त था मुलाक़ात के लिए आया। पह‌ले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंघ ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका” यह तुम से मिलने आया है — तुम्हारा दोस्त फ़ज़ल दीन है। “ बिशन सिंघ ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़ल दीन ने आगे बढ़ कर उसके कन्धे पर हाथ रखा”मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूं लेकिन फ़ुरसत ही न मिली, तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे, मुझसे जितनी मदद हो सकी मैंने की, तुम्हारी बेटी रूप कौर...“ वह कुछ कह‌ते कहते रुक गया । बिशन सिंघ कुछ याद करने लगा” बेटी रूप कौर ” फ़ज़लदीन ने रुक रुक कर कहा ” हां... वह...वह भी ठीक ठाक है उनके साथ ही चली गई थी। “बिशन सिंघ ख़ामोश रहा। फ़ज़लदीन ने कह‌ना शुरू किया ” उन्होने मुझ से कहा था कि तुम्हारी ख़ैर ख़ैरियत पूछ्ता रहूं — अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो — भाई बल्बेसर सिंघ और भाई वधावा सिंघ से मेरा सलाम कहना — और बहन अमरित कौर से भी...भाई बल्बेसर से कह्‌ना फ़ज़लदीन राज़ी खुशी है — वह भूरी भैंसें जो वह छोड़ गए थे उनमें से एक ने कट्‌टा दिया है — दूसरी के कट्‌टी हुई थी पर वह छह दिन की हो के मर गई...और...लाइक़ जो ख़िदमत हो कहना...हर वक़्त तैयार हूं...और यह तुम्हारे थोड़े से मरूंडे लाया हूं। “
बिशन सिंघ ने मरूंडों की पोटली ले कर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा “टोबा टेक सिंघ कहां है ?”
फ़ज़लदीन ने क़द्रे हैरत से कहा ” कहां है? — वहीं है जहां था “बिशन सिंघ ने फिर पूछा ” पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “
” हिंदुस्तान में नहीं नहीं पाकिस्तान में ” फ़ज़लदीन बौखला सा गया।
बिशन सिंघ बड़‌बड़ाता हुआ चला गया ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी आफ़ दी पाकिस्तान ऐंड हिंदुस्तान आफ़ दी दूर फिटे मुंह ! “तबादले के तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फ़हरिस्तें पहुंच गई थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था।।
सख़्त सर्दियां थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिन्दू सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई मुत्तलिक अफ़सर भी हमराह थे। वाघा के बार्डर पर तरफ़ैन के सुपरिंटेडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तिदाई कारवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू` हो गया जो रात भर जारी रहा। पागलों को लारियों से निकालना और दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रज़ा-मन्द होते थे, उन को संभालना मुश्किल हो जाता था,क्योंकि इधर उधर भाग उठते थे,जो नंगे थे उन को कपड़े पहनाए जाते तो वह फाड़ कर अपने तन से जुदा कर देते। कोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है,आपस में लड़झगड़ रहे हैं,रो रहे थे, बिलख रहे हैं, कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी,पागल औरतों का शोर-ओ-ग़ौग़ा अलग था और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे । पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक़ में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उंहें अपनी जगह से उखाड़ कर कहां फेंका जा रहा है। वह चन्द जो कुछ सोच समझ सकते थे ” पाकिस्तान जिंदाबाद” और ” पाकिस्तान मुर्दाबाद” के नारे लगा रहे थे। दो तीन मर्तबा फ़साद होते होते बचा, क्योंकि बाज़ मुसलमानों ओर सिखों को यह नारे सुन कर तेश आ गया था।
बिशन सिंघ की बारी आई और वाघा के उस पार मुत्तलिक अफ़सर उस का नाम रिजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उस ने पूछा ” टोबा टेक सिंघ कहां है? — पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “ मुत्तलिक अफ़सर हंसा ” पाकिस्तान में “
यह सुन कर बिशन सिंघ उछल कर एक तरफ़ हटा और दौड़ कर अपने बाक़ी मांदह साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया “टोबा टेक सिंघ यहां है —” और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा _ ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ टोबा टेक सिंघ ऐंड पाकिस्तान “उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेक सिंघ हिंदुस्तान में चला गया है, अगर नहीं गया तो उसे फ़ौरन वहां भेज दिया जाएगा। मगर वह न माना। जब उस को ज़बरदस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दर्मियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त वहां से नहीं हिला सकेगी।
आदमी चूंकि बेज़रर था इस लिए उससे मज़ीद ज़बरदस्ती न की गई , उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और तबादले का बाक़ी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले साकत-ओ-सामत बिशन सिंघ के हल्क़ से एक फ़लक-शिगाफ़ चीख़ निकली। इधर उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और देखा कि वह आद‌मी जो पन्द्रह बरस तक दिन रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा , औंधे मुंह लेटा है। उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान! दर्मियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिस का कोई नाम नहीं था। टोबह टेक सिंघ पड़ा था।

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

दिल्ली में एक मौत - कमलेश्वर

( कमलेश्वर की कहानी..जो बताती है कि शहर की भागदौड़ में जिंदगी कैसे पीछे छूट जाती है..)
मैं चुपचाप खड़ा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लड़के से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है। सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है... पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है।
चारों तरफ कुहरा छाया हुआ है। सुबह के नौ बजे हैं, लेकिन पूरी दिल्ली धुँध में लिपटी हुई है। सड़कें नम हैं। पेड़ भीगे हुए हैं। कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता। जिंदगी की हलचल का पता आवाजों से लग रहा है। ये आवाजें कानों में बस गई हैं। घर के हर हिस्से से आवाजें आ रही हैं। वासवानी के नौकर ने रोज की तरह स्टोव जला दिया है, उसकी सनसनाहट दीवार के पार से आ रही है। बगल वाले कमरे में अतुल मवानी जूते पर पालिश कर रहा है... ऊपर सरदारजी मूँछों पर फिक्सो लगा रहे हैं... उनकी खिड़की के परदे के पार जलता हुआ बल्ब बड़े मोती की तरह चमक रहा है। सब दरवाजे बंद हैं, सब खिड़कियों पर परदे हैं, लेकिन हर हिस्से में जिंदगी की खनक है। तिमंजिले पर वासवानी ने बाथरूम का दरवाजा बंद किया है और पाइप खोल दिया है...
कुहरे में बसें दौड़ रही हैं। जूँ-जूँ करते भारी टायरों की आवाजें दूर से नजदीक आती हैं और फिर दूर होती जाती हैं। मोटर-रिक्शे बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं। टैक्सी का मीटर अभी किसी ने डाउन किया है। पड़ोस के डॉक्टर के यहाँ फोन की घंटी बज रही है। और पिछवाड़े गली से गुजरती हुई कुछ लड़कियाँ सुबह की शिफ्ट पर जा रही हैं।
सख्त सर्दी है। सड़कें ठिठुरी हुई हैं और कोहरे के बादलों को चीरती हुई कारें और बसें हॉर्न बजाती हुई भाग रही हैं। सड़कों और पटरियों पर भीड़ है, पर कुहरे में लिपटा हुआ हर आदमी भटकती हुई रूह की तरह लग रहा है।
वे रूहें चुपचाप धुँध के समुद्र में बढ़ती जा रही हैं... बसों में भीड़ है। लोग ठंडी सीटों पर सिकुड़े हुए बैठे हैं और कुछ लोग बीच में ही ईसा की तरह सलीब पर लटके हुए हैं- बाँहें पसारे, उनकी हथेलियों में कीलें नहीं, बस की बर्फीली, चमकदार छड़ें हैं।
और ऐसे में दूर से एक अर्थी सड़क पर चली आ रही है।
इस अर्थी की खबर अखबार में है। मैंने अभी-अभी पढ़ी है। इसी मौत की खबर होगी। अखबार में छपा है- आज रात करोलबाग के मशहूर और लोकप्रिय बिजनेस मैगनेट सेठ दीवानचंद की मौत इरविन अस्पताल में हो गई। उनका शव कोठी पर ले आया गया है। कल सुबह नौ बजे उनकी अर्थी आर्य समाज रोड से होती हुई पंचकुइयाँ श्मशान-भूमि में दाह-संस्कार के लिए जाएगी।
और इस वक्त सड़क पर आती हुई यह अर्थी उन्हीं की होगी। कुछ लोग टोपियाँ लगाए और मफलर बाँधे हुए खामोशी से पीछे-पीछे आ रहे हैं। उनकी चाल बहुत धीमी है। कुछ दिखाई पड़ रहा है, कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है, पर मुझे ऐसा लगता है अर्थी के पीछे कुछ आदमी हैं।
मेरे दरवाजे पर दस्तक होती है। मैं अखबार एक तरफ रखकर दरवाजा खोलता हूँ। अतुल मवानी सामने खड़ा है।
`यार, क्या मुसीबत है, आज कोई आयरन करने वाला भी नहीं आया, जरा अपना आयरन देना।' अतुल कहता है तो मुझे तसल्ली होती है। नहीं तो उसका चेहरा देखते ही मुझे खटका हुआ था कि कहीं शवयात्रा में जाने का बवाल न खड़ा कर दे। मैं उसे फौरन आयरन दे देता हूँ और निश्चिंत हो जाता हूँ कि अतुल अब अपनी पेंट पर लोहा करेगा और दूतावासों के चक्कर काटने के लिए निकल जाएगा।
जब से मैंने अखबार में सेठ दीवानचंद की मौत की खबर पढ़ी थी, मुझे हर क्षण यही खटका लगा था कि कहीं कोई आकर इस सर्दी में शव के साथ जाने की बात न कह दे। बिल्डिंग के सभी लोग उनसे परिचित थे और सभी शरीफ, दुनियादार आदमी थे।
तभी सरदारजी का नौकर जीने से भड़भड़ाता हुआ आया और दरवाजा खोलकर बाहर जाने लगा। अपने मन को और सहारा देने के लिए मैंने उसे पुकारा, `धर्मा! कहाँ जा रहा है?'
`सरदारजी के लिए मक्खन लेने,' उसने वहीं से जवाब दिया तो लगे हाथों लपककर मैंने भी अपनी सिगरेट मँगवाने के लिए उसे पैसे थमा दिए।
सरदारजी नाश्ते के लिए मक्खन मँगवा रहे हैं, इसका मतलब है वे भी शवयात्रा में शामिल नहीं हो रहे हैं। मुझे कुछ और राहत मिली। जब अतुल मवानी और सरदारजी का इरादा शवयात्रा में जाने का नहीं है तो मेरा कोई सवाल ही नहीं उठता। इन दोनों का या वासवानी परिवार का ही सेठ दीवानचंद के यहाँ ज्यादा आना-जाना था। मेरी तो चार-पाँच बार की मुलाकात भर थी। अगर ये लोग ही शामिल नहीं हो रहे हैं तो मेरा सवाल ही नहीं उठता।
सामने बारजे पर मुझे मिसेस वासवानी दिखाई पड़ती हैं। उनके खूबसूरत चेहरे पर अजीब-सी सफेदी और होंठों पर पिछली शाम की लिपस्टिक की हल्की लाली अभी भी मौजूद थी। गाउन पहने हुए ही वे निकली हैं और अपना जूड़ा बाँध रही हैं। उनकी आवाज सुनाई पड़ती है, `डार्लिंग, जरा मुझे पेस्ट देना, प्लीज...'
मुझे और राहत मिलती है। इसका मतलब है कि मिस्टर वासवानी भी मैयत में शामिल नहीं हो रहे हैं।
दूर आर्य समाज रोड पर वह अर्थी बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती आ रही है...
अतुल मवानी मुझे आयरन लौटाने आता है। मैं आयरन लेकर दरवाजा बंद कर लेना चाहता हूँ, पर वह भीतर आकर खड़ा हो जाता है और कहता है, `तुमने सुना, दीवानचंदजी की कल मौत हो गई है।'
`मैंने अभी अखबार में पढ़ा है,' मैं सीधा-सा जवाब देता हूँ, ताकि मौत की बात आगे न बढ़े। अतुल मवानी के चेहरे पर सफेदी झलक रही है, वह शेव कर चुका है। वह आगे कहता है, `बड़े भले आदमी थे दीवानचंद।'
यह सुनकर मुझे लगता है कि अगर बात आगे बढ़ गई तो अभी शवयात्रा में शामिल होने की नैतिक जिम्मेदारी हो जाएगी, इसलिए मैं कहता हूँ, `तुम्हारे उस काम का क्या हुआ?'
`बस, मशीन आने भर की देर है। आते ही अपना कमीशन तो खड़ा हो जाएगा। यह कमीशन का काम भी बड़ा बेहूदा है। पर किया क्या जाए? आठ-दस मशीनें मेरे थ्रू निकल गइंर् तो अपना बिजनेस शुरू कर दूँगा।' अतुल मवानी कह रहा है, `भई, शुरू-शुरू में जब मैं यहाँ आया था तो दीवानचंदजी ने बड़ी मदद की थी मेरी। उन्हीं की वजह से कुछ काम-धाम मिल गया था। लोग बहुत मानते थे उन्हें।'
फिर दीवानचंद का नाम सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं। तभी खिड़की से सरदारजी सिर निकालकर पूछने लगते हैं, `मिस्टर मवानी! कितने बजे चलना है?'
`वक्त तो नौ बजे का था, शायद सर्दी और कुहरे की वजह से कुछ देर हो जाए।' वह कह रहा है और मुझे लगता है कि यह बात शवयात्रा के बारे में ही है।
सरदारजी का नौकर धर्मा मुझे सिगरेट देकर जा चुका है और ऊपर मेज पर चाय लगा रहा है। तभी मिसेज वासवानी की आवाज सुनाई पड़ती है, `मेरे खयाल से प्रमिला वहाँ जरूर पहुँचेगी, क्यों डार्लिंग?'
`पहुँचना तो चाहिए। ...तुम जरा जल्दी तैयार हो जाओ।' कहते हुए मिस्टर वासवानी बारजे से गुजर गए हैं।
अतुल मुझसे पूछ रहा है, `शाम को कॉफी-हाउस की तरफ आना होगा?'
`शायद चला आऊँ,' कहते हुए मैं कम्बल लपेट लेता हूँ और वह वापस अपने कमरे में चला जाता है। आधे मिनट बाद ही उसकी आवाज फिर आती है, `भई, बिजली आ रही है?'
मैं जवाब दे देता हूँ, `हाँ, आ रही है।' मैं जानता हूँ कि वह इलेक्ट्रिक रॉड से पानी गर्म कर रहा है, इसीलिए उसने यह पूछा है।
`पॉलिश!' बूट पॉलिश वाला लड़का हर रोज की तरह अदब से आवाज लगाता है और सरदारजी उसे ऊपर पुकार लेते हैं। लड़का बाहर बैठकर पॉलिश करने लगता है और वह अपने नौकर को हिदायतें दे रहे हैं, `खाना ठीक एक बजे लेकर आना।... पापड़ भूनकर लाना और सलाद भी बना लेना...।'
मैं जानता हूँ सरदारजी का नौकर कभी वक्त से खाना नहीं पहुँचाता और न उनके मन की चीजें ही पकाता है।
बाहर सड़क पर कुहरा अभी भी घना है। सूरज की किरणों का पता नहीं है। कुलचे-छोलेवाले वैष्णव ने अपनी रेढ़ी लाकर खड़ी कर ली है। रोज की तरह वह प्लेटें सजा रहा है, उनकी खनखनाहट की आवाज आ रही है।
सात नंबर की बस छूट रही है। सूलियों पर लटके ईसा उसमें चले जा रहे हैं और क्यू में खड़े और लोगों को कंडक्टर पेशगी टिकट बाँट रहा है। हर बार जब भी वह पैसे वापस करता है तो रेजगारी की खनक यहाँ तक आती है। धुँध में लिपटी रूहों के बीच काली वर्दी वाला कंडक्टर शैतान की तरह लग रहा है।
और अर्थी अब कुछ और पास आ गई है।
`नीली साड़ी पहन लूँ?' मिसेज वासवानी पूछ रही हैं।
वासवानी के जवाब देने की घुटी-घुटी आवाज से लग रहा है कि वह टाई की नॉट ठीक कर रहा है।
सरदारजी के नौकर ने उनका सूट ब्रुश से साफ करके हैंगर पर लटका दिया है। और सरदारजी शीशे के सामने खड़े पगड़ी बाँध रहे हैं।
अतुल मवानी फिर मेरे सामने से निकला है। पोर्टफोलियो उसके हाथ में है। पिछले महीने बनवाया हुआ सूट उसने पहन रखा है। उसके चेहरे पर ताजगी है और जूतों पर चमक। आते ही वह मुझे पूछता है, `तुम नहीं चल रहे हो?' और मैं जब तक पूछूँ कि कहाँ चलने को वह पूछ रहा है, वह सरदारजी को आवाज लगाता है, `आइए, सरदारजी! अब देर हो रही है। दस बज चुका है।'
दो मिनट बाद ही सरदारजी तैयार होकर नीचे आते हैं कि वासवानी ऊपर से ही मवानी का सूट देखकर पूछता है, `ये सूट किधर सिलवाया?'
`उधर खान मार्केट में।'
`बहुत अच्छा सिला है। टेलर का पता हमें भी देना।' फिर वह अपनी मिसेज को पुकारता है, `अब आ जाओ, डियर!... अच्छा मैं नीचे खड़ा हूँ तुम आओ।' कहता हुआ वह भी मवानी और सरदारजी के पास आ जाता है और सूट को हाथ लगाते हुए पूछता है, `लाइनिंग इंडियन है।'
`इंग्लिश!'
`बहुत अच्छा फिटिंग है!' कहते हुए वह टेलर का पता डायरी में नोट करता है। मिसेज वासवानी बारजे पर दिखाई पड़ती हैं।
अर्थी अब सड़क पर ठीक मेरे कमरे के नीचे है। उसके साथ कुछेक आदमी हैं, एक-दो कारें भी हैं, जो धीरे-धीरे रेंग रही हैं। लोग बातों में मशगूल हैं।
मिसेज वासवानी जूड़े में फूल लगाते हुए नीचे उतरती हैं तो सरदारजी अपनी जेब का रुमाल ठीक करने लगते हैं। और इससे पहले कि वे लोग बाहर जाएँ वासवानी मुझसे पूछता है, `आप नहीं चल रहे?'
`आप चलिए मैं आ रहा हूँ' मैं कहता हूँ पर दूसरे ही क्षण मुझे लगता है कि उसने मुझसे कहाँ चलने को कहा है? मैं अभी खड़ा सोच ही रहा रहा हूँ कि वे चारों घर के बाहर हो जाते हैं।
अर्थी कुछ और आगे निकल गई है। एक कार पीछे से आती है और अर्थी के पास धीमी होती है। चलाने वाले साहब शवयात्रा में पैदल चलने वाले एक आदमी से कुछ बात करते हैं और कार सर्र से आगे बढ़ जाती है। अर्थी के साथ पीछे जाने वाली दोनों कारें भी उसी कार के पीछे सरसराती हुई चली जाती हैं।
मिसेज वासवानी और वे तीनों लोग टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे हैं। मैं उन्हें देखता रहता हूँ। मिसेज वासवानी ने फर-कालर डाल रखा है। और शायद सरदारजी अपने चमड़े के दास्ताने पहने हैं और वे चारों टैक्सी मेें बैठ जाते हैं। अब टैक्सी इधर ही आ रही है और उसमें से खिलखिलाने की आवाज मुझे सुनाई पड़ रही है। वासवानी आगे सड़क पर जाती अर्थी की ओर इशारा करते हुए ड्राइवर को कुछ बता रहा है।...
मैं चुपचाप खड़ा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लड़के से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है। सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है... पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है।
उन चारों की टैक्सी अर्थी के पास धीमी होती है। मवानी गर्दन निकालकर कुछ कहता है और दाहिने से रास्ता काटते हुए टैक्सी आगे बढ़ जाती है।
मुझे धक्का-सा लगता है और मैं ओवरकोट पहनकर, चप्पलें डालकर नीचे उतर आता हूँ। मुझे मेरे कदम अपने आप अर्थी के पास पहुँचा देते हैं, और मैं चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूँ। चार आदमी कंधा दिए हुए हैं और सात आदमी साथ चल रहे हैं- सातवाँ मैं ही हूँ।और मैं सोच रहा हूँ कि आदमी के मरते ही कितना फर्क पड़ जाता है। पिछले साल ही दीवानचंद ने अपनी लड़की की शादी की थी तो हजारों की भीड़ थी। कोठी के बाहर कारों की लाइन लगी हुई थी...
मैं अर्थी के साथ-साथ लिंक रोड पर पहुँच चुका हूँ। अगले मोड़ पर ही पंचकुइयाँ श्मशान भूमि है।
और जैसे ही अर्थी मोड़ पर घूमती है, लोगों की भीड़ और कारों की कतार मुझे दिखाई देने लगती है। कुछ स्कूटर भी खड़े हैं। औरतों की भीड़ एक तरफ खड़ी है। उनकी बातों की ऊँची ध्वनियाँ सुनाई पड़ रही हैं। उनके खड़े होने में वही लचक है जो कनॉट प्लेस में दिखाई पड़ती है। सभी के जूड़ों के स्टाइल अलग-अलग हैं। मर्दों की भीड़ से सिगरेट का धुआँ उठ-उठकर कुहरे में घुला जा रहा है और बात करती हुई औरतों के लाल-लाल होंठ और सफेद दाँत चमक रहे हैं और उनकी आँखों में एक गरूर है...
अर्थी को बाहर बने चबूतरे पर रख दिया गया है। अब खामोशी छा गई है। इधर-उधर बिखरी हुई भीड़ शव के ईद-गिर्द जमा हो गई है और कारों के शोफर हाथों में फूलों के गुलदस्ते और मालाएँ लिए अपनी मालकिनों की नजरों का इंतजार कर रहे हैं।
मेरी नजर वासवानी पर पड़ती है। वह अपनी मिसेज को आँख के इशारे से शव के पास जाने को कह रहा है और वह है कि एक औरत के साथ खड़ी बात कर रही है। सरदारजी और अतुल मवानी भी वहीं खड़े हुए हैं।
शव का मुँह खोल दिया गया है और अब औरतें फूल और मालाएँ उसके ईद-गिर्द रखती जा रही हैं। शोफर खाली होकर अब कारों के पास खड़े सिगरेट पी रहे हैं।
एक महिला माला रखकर कोट की जेब से रुमाल निकालती है और आँखों पर रखकर नाक सुरसुराने लगती है और पीछे हट जाती है।
और अब सभी औरतों ने रुमाल निकाल लिए हैं और उनकी नाकों से आवाजें आ रही हैं।
कुछ आदमियों ने अगरबत्तियाँ जलाकर शव के सिरहाने रख दी हैं। वे निश्चल खड़े हैं।
आवाजों से लग रहा है औरतों के दिल को ज्यादा सदमा पहुँचा है।
अतुल मवानी अपने पोर्टफोलियो से कोई कागज निकालकर वासवानी को दिखा रहा है। मेरे खयाल से वह पासपोर्ट का फॉर्म है।
अब शव को भीतर श्मशान भूमि में ले जाया जा रहा है। भीड़ फाटक के बाहर खड़ी देख रही है। शोफरों ने सिगरेटें या तो पी ली हैं या बुझा दी हैं और वे अपनी-अपनी कारों के पास तैनात हैं।
शव अब भीतर पहुँच चुका है।
मातमपुरसी के लिए आए हुए आदमी और औरतें अब बाहर की तरफ लौट रहे हैं। कारों के दरवाजे खुलने और बंद होने की आवाजें आ रही हैं। स्कूटर स्टार्ट हो रहे हैं। और कुछ लोग रीडिंग रोड, बस-स्टॉप की ओर बढ़ रहे हैं।
कुहरा अभी भी घना है। सड़क से बसें गुजर रही हैं और मिसेज वासवानी कह रही हैं, `प्रमिला ने शाम को बुलाया है, चलोगे न डियर? कार आ जाएगी। ठीक है न?'
वासवानी स्वीकृति में सिर हिला रहा है।
कारों में जाती हुई औरतें मुस्कराते हुए एक-दूसरे से बिदा ले रही हैं और बाय-बाय की कुछेक आवाजें आ रही हैं। कारें स्टार्ट होकर जा रही हैं।
अतुल मवानी और सरदारजी भी रीडिंग रोड, बस स्टॉप की ओर बढ़ गए हैं और मैं खड़ा सोच रहा हूँ कि अगर मैं भी तैयार होकर आया होता तो यहीं से सीधा काम पर निकल जाता। लेकिन अब तो साढ़े ग्यारह बज चुके हैं।
चिता में आग लगा दी गई है और चार-पाँच आदमी पेड़ के नीचे पड़ी बैंच पर बैठे हुए हैं। मेरी तरह वे भी यूँ ही चले आए हैं। उन्होंने जरूर छुट्टी ले रखी होगी, नहीं तो वे भी तैयार होकर आते।
मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि घर जाकर तैयार होकर दफ्तर जाऊँ या अब एक मौत का बहाना बनाकर आज की छुट्टी ले लूँ- आखिर मौत तो हुई ही है और मैं शवयात्रा में शामिल भी हुआ हूँ।