सोमवार, 12 जनवरी 2009

मेरा कबूलनामा...दिल से ५


पिछले कबूलनामे में थोड़ा जज्बाती हो गया...कबूलनामे की चौथी कड़ी में जो लिखा उसका ये मतलब कतई नहीं था कि मैं निराश हूं...लेकिन जब आप व्यक्तिगत होते हैं...तो थोड़ा भावुक हो जाना लाजमी है...मैं जानता हूं कि निराशा आपको आधा मार देती है...और मुश्किलों से जूझते हुए आप काफी कुछ सीखते हैं...मैं थोड़ा भावुक हूं..लोगों की तकलीफें मुझे परेशान करती हैं...उनका दर्द मुझे झकझोर देता है...लोगों की मदद करना चाहता हूं....और शायद यही भ्रम पाल कर ही पत्रकारिता में आया...सोचा कि लोगों के सवाल उठाउंगा...भ्रष्ट अधिकारियों को कटघरे में खड़ा करूंगा... लेकिन अफसोस है कि जिस मीडिया में काम कर रहा हूं...वहां खबर का काला कारोबार चल रहा है...हम खबर को प्रोडक्ट बनाने पर तूले हैं...खबर की आत्मा रोज गिरवी रखी जा रही है...ये सारी बातें कचोटती हैं...लेकिन रोटी के दो निवाले के मोह में नौकरी भी नहीं छोड़ सकता...फिलहाल अपने आसपास कुछ मौलिक नहीं है...कट कॉपी पेस्ट की परम्परा इस वक्त चैनलों में खूब फल फूल रही है...मुझे पता है कि सफर लंबा है...मेरे भी कुछ सपने देखे हैं...फिलहाल तो सपनों को पालना सीख रहा हूं...सच कहूं तो मैं निराश नहीं हूं...हताश भी नहीं हूं...और परेशान भी नहीं हूं...लेकिन जब राह के कांटे चुभते हैं तो टीस तो होती है...

मेरा कबूलनामा दिल से 4

ये ऐसा जाल है जहां बुरी तरह फंस चुका हूं...लगता है कि नियति खुशियों पर कुण्डली लगा कर बैठी है...एक कदम आगे बढ़ता हूं तो चार कदम पीछे खींच दिया जाता हूं...कुछ सोचना चाहता हूं लेकिन सोचने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं...अपनों के सामने किसी गुनहगार की तरह नजरें चुराने का मन करता है...अपने आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए पेपर के कुछ कोटेशन नोट करता हूं...लेकिन वो भी दिमाग के कोने में ज्यादा देर टिककर नहीं बैठते...घर से मिलने का जी करता है...लेकिन एक घटिया सी नौकरी ( अब मानने लगा हूं क्योंकि दिल्ली में जो काम कर रहा हूं उसने कभी सूकून नहीं दिया) पांव रोक लेती है... हर महीने देर सबेर आशंकाओं के साथ आ जाने वाली सैलरी का कोई सदुपयोग हो सका हो याद नहीं आता... जिस कलम को ताकत समझ कर पत्रकारिता करने उतरा...उसकी स्याही अब सूखने लगी है... लोगों की तकलीफों को समझने की कोशिश अब ऑफिस में होने वाले उठापटक समझने में जाया कर रहा हूं...पढ़ाई में जैसा था उससे तो अंदाजा भी नहीं था की नौकरी कभी मिलेगी भी...लेकिन पहले फीचर एजेन्सी और फिर अखबार में जो कलम घिसी उससे दो पैसे का आदमी बन गया... एक कहानी की छपास ने मीडिया का कोर्स करने के दौरान ही फीचर एजेन्सी के दफ्तर पहुंचा दिया...यही मेरी पत्रकारिता की शुरुआत थी...लेकिन तीन साल बीत जाने के बाद इस वक्त खुद पत्रकारिता के आगे सवाल बनकर खड़ा हूं... खुद को पत्रकार कहने में झिझक महसूस होती है... कहने और सुनने के लिए अब ना तो कुछ मौलिक बचा है...और ना ही वो जज्बा बाकी है कि कुछ नया गढ़ सकूं...जिंदगी कविता की उन अधूरी लाइनों की तरह रह गई है...जहां ठहराव ना होते हुए भी सबकुछ ठहर सा गया है...