बुधवार, 9 जून 2010

कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे


बंद करो अब शोर लगती हैं तुम्हारी ये खबरें
जान चुका हूं तुम्हारे पुते चेहरों पर झल्लाहट का सारा सच
मुझे मालूम है तुम्हारी नेताओं से सांठगांठ की हकीकत
मुझे ये भी पता है कि एक हारी लड़ाई लड़ रहे हो तुम सब
खुद खरोच रहे हो अपने वजूद को अपने नाखूनों से
पैसों की तहों में दब चुकी है तुम्हारी सोच और तुम्हारा प्रोफेशन
मुझे पता है तुम खुद को सुनाने के लिए चीखते हो
मुझे ये भी पता है कि तुम खुद को बचाने के लिए चीखते हो
लेकिन दोस्त तुम्हारी ये चीख
अब दिमाग में हलचल पैदा नहीं करती
सिर्फ और सिर्फ झल्लाहट पैदा करती है
और थोड़ी बहुत तरस पैदा करती है तुम्हारे लिए
तुम्हारे पेशे के लिए

शुक्रवार, 4 जून 2010

कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे

तेज आवाज में बात करना सीख नहीं पाया और धीमी आवाज़ अब कोई सुनना नहीं चाहता। खामोशी से अपना काम करना सुस्त होने की निशानी है। चीखने से गले में खराश पैदा हो जाती है। बोलने से ज्यादा वक्त सोचने में बीतता है। सड़क पर चलते किसी शख्स को उसकी गलती के बावजूद भला बुरा कहने में हिचक अभी कायम है। आखिरी बार किसी को अपशब्द कब बोले थे ये भी याद नहीं। इन तमाम बीमारियों ने दिल्ली की आवोहवा में सांस लेना दुभर कर दिया है। बंद कमरे में सांस घुट रही है और खिड़की खोलने पर जहरीली हवा का खौफ है। लोगों की आवाज़ का शोर बढ़ा है। खुशियों को बाजार से डिस्काउंट में खरीद लाने की होड़ बढ़ी है। बेमतलब की बातें बढ़ी हैं फिजूल के किस्से बढ़े हैं। अब तो मजाज़ की तरह सारे के सारे चांद तारे नोच लेने का जी करता है गैर की बस्ती से दूर किसी सन्नाटे में खुद से बातें करने का जी करता है। जगमगाती जागती जिंदगियों से दूर फिराक की तरह ये कह देने का मन करता है की कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं। फिलहाल तो शोर में अपनी आवाज सुनने की कोशिश कर रहा हूं। भीड़ में खुद को तलाश लेने की जुगत कर रहा हूं। पता है कि उधार की खुशियों से जिंदगी नहीं कटती।