शनिवार, 7 जुलाई 2007

हिट फार्मूला

खबर का धंधा करना और उसे लेकर संजीदा होना दो अलग अलग चीजें हैं। मेरे ख्याल से संवेदनाओं का मर जाना उतना खतरनाक नहीं जितना उन संवेदनाओं को अपनी टीआरपी के लिए कैश कराना। शायद संवेदनहीन हो चुकी खबरों की मार्केट में यही सब चल रहा है। बात मुरादाबाद की है जहां पिछले दिनों एक पति पत्नी उत्पीड़न की सुनवाई ना होने के चलते मिट्टी का तेल अपने ऊपर छिड़क कर टंकी पर चढ़ गए । ये शहर में पहली बार नहीं था इससे पहले भी कुछ लोग टावर पर चढ़कर जान देने की नौटंकी कर चुके थे । माहौल मीडिया के लिहाज से हिट था सो कैमरों के फ्रेम में इन्हे कैश कराने का पूरा इंतजाम हुआ । एक अति उत्साही चैनल में तो ये खबर घटने से पहले ही फ्लैश हो गयी। फिलहाल कुछ घंटे चले इस नाटक को पुलिस और आलाधिकारियों के आश्वासन ( जिन पर यकीन करने की परंपरा फिलहाल खत्म हो चुकी है ) के बाद खत्म किया गया और उन दोनो को टंकी से उतार गया। यहां तक की घटना हर चैनल के चौखटे पर खबर बनी। लेकिन इसके बाद मीडिया के कैमरों के इतर जो घटा वो वाकई चौंका देने वाला था। पता चला कि काफी समय से ये पति पत्नी अपने यहां के ब्लाक प्रमुख के उत्पीड़न से परेशान थे। बर्फ बेचकर पेट की आग बुझाना इनके लिए नाकाफी था और ऊपर से उत्पीड़न का खौफ। सो अपनी फरियाद सरकारी दफ्तरों में उन्होने कई बार सुनाने की कोशिश की । लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई । इस बीच एक रिपोर्टर के कान में इस दम्पत्ति की कहानी पड़ी। खबर बड़ी नहीं थी। बस मसाला इतना था कि एक फरियादी जो न्याय के इंतजार में दर दर भटक रहा है । लेकिन उस रिपोर्टर के दिमाग में हिट स्क्रिप्ट पहले से तैयार थी। बस खोज थी स्क्रिप्ट में फिट होते दर्दनाक कैरेक्टर की। सीन शोले फिल्म का चुराया हुआ था जो आजकल टीवी पत्रकारिता का एक हिट आइटम भी था। उस पत्रकार ने पहले दम्पत्ति को उत्पीड़न के जंजाल से निकालने का सपना दिखाया और फिर कहानी में दर्द उकेरने के लिए मिट्टी का तेल छिड़ककर दोनो को पानी की टंकी पर चढ़ा दिया। इसके बाद जो हुआ उससे टीवी का शो तो हिट हो गया लेकिन बेचारे उन दोनो को आत्महत्या की कोशिश करने के जुर्म में जेल भेज दिया गया। दरअसल यही कड़ुवी सच्चाई पत्रकारिता से जुड़े किसी भी संजीदा जेहन को झकझोरती है। लेकिन टीआरपी की गणित में ऐसी स्टोरी हिट हैं और ऐसा करने वाला पत्रकार आज का सफल पत्रकार है।

कुछ नया

आदमी
हमेशा पहले से ज्यादा
मेहनत कर सकता है
कम से कम
कुछ दिनों की बंधी
दिनचर्या के बाद तो
यही लगने लगता है
कि कुछ बदलना चाहिए
पता नहीं
आदमी ज्यादा काम करता है
या वो माहौल बदलता है
लेकिन मानसिकता बदलने पर
जिंदगी में कुछ दिन
कुछ नया तो होता ही है
जिन्दगी जितनी पुरानी पड़ती जाती है
आदमी में कुछ नया करने की
ख्वाहिश उतनी बढ़ती है
खुद को छोड़ भी दें
क्योंकि ये तो अपने लिए है
अपनी ही बात है
फिर भी दूसरों के लिए
हर छोटा बड़ा आदमी जवाबदेह है
सबका काम हर एक से जुड़ा है
यही वजह है
कि हम कभी नया करना बेहतर करना
छोड़ नहीं सकते
( दीपक, २५ सितम्बर.०५ )