बुधवार, 28 मई 2008

वो बारह घंटे...

वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
वो चाहते हैं
अपने हिस्से की खिलखिलाहट...
वो मांगते हैं
अपने सपनों का हिस्सा...
वो देखना चाहते हैं
दोस्तों के सपनों में सपना...
रास्तों पर नंगे पांव दौड़ना चाहते है
वो घंटे अपना हिसाब मांगते हैं...
वो नहीं जानते
तिगड़म का जाल...
वो नहीं समझते
अपनें दिखते लोगों की चाल...
बस पेड़ की छांव चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं...
सपनों के धुंधलके में उम्मीद चाहते हैं...
अपने शहर की तस्वीर चाहते हैं...
जवानी में फिर से बचपन चाहते हैं..
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
मां के हाथों की मार..
पिता की फटकार...
भाई का दुलार चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
तपती दोपहर में बादल की छांव चाहते हैं
बरसात में भीगकर कंपकपना चाहते हैं
शैतानियां करके छुपाना चाहते हैं
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते हैं
चाय की चुस्कियो के बीच
ढेर सी काहानियां चाहते हैं
बहुत लिखकर कुछ कुछ मिटाना चाहते हैं
बच्चों की तूतलाहट के बीच मचलना चाहते हैं..
वो घंटे मुझसे हिसाब मांगते है.....
( दरअसल ये वो घंटे हैं जो पता नहीं कैसे कट जाते हैं...ना तो खुशी देते हैं...हां थोड़ा सा गम देते हैं...अपनों से दूर होने का एहसास देते हैं...मजबूरी के लाबादे में...मशहूरी के मुगालते में...ठहरे ठहरे से लगते हैं...वो दिन के बारह घंटे...दफ्तर की उमस के बीच...बीत जाते हैं पर होने का कभी भी एहसास नहीं देते...बस दूर से दूर लगते हैं...खुद से अनजान लगते हैं...वो बारह घंटे..कविता की शक्ल में बह जाना चाहते हैं...शब्दों में ठहर जाना चाहते .दिन के वो बारह घंटे जो बीत जाते हैं पर पता नहीं चलते )
Subodh 9313254747