बुधवार, 24 दिसंबर 2008

टोबा टेक सिंह - मंटो की कहानी

बंटवारे के दो तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि इखलाकी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए...यानी जो मुसलमान पागल, हिंदुस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हें पकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागल-ख़ानों में हैं उन्हे हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए.. मालूम नहीं यह बात माक़ूल थी या ग़ैर-माक़ूल, बहरहाल दानिश-मन्दों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर उधर ऊंची सतह की कान्फ्रेंसे हुईं ,और बाल-आख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया..अच्छी तर‌ह छानबीन की गई। वह मुसलमान पागल जिन के लवाहिक़ीन हिंदुस्तान में ही में थे,वहीं रहने दिए गए थे, जो बाक़ी थे उन को सर‌हद पर रवाना कर दिया गया.. यहां पाकिस्तान में चूंकि क़रीब क़रीब तमाम हिंदू सिख जा चुके थे, इसलिए किसी को रखने रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू सिख पागल थे, सब के सब पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुंचा दिए गए। उधर का मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब उस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिह-मी-गूइयां होने लगीं। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बा-क़ाइदगी के साथ ” ज़मीनदार ” पढ़ता था उस से जब उस के एक दोस्त ने पूछा ” मोलबी साब , यह पाकिस्‌तन क्या होता है”,उस ने बड़े ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद जवाब दिया,” हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बन हैं।”यह जवाब सुन कर उस का दोस्त मुत्‌मईन हो गया.. उसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा “सरदार-जी हमें हिंदुस्तान क्यूं भेजा जा रहा है हमें तो वहां की बोली नहीं आती?”दूसरा मुस्कुराया ” मुझे तो हिंदुस्तोड़ो की बोली आती है — हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं। ”एक दिन नहाते नहाते एक मुसलमान पागल ने ” पाकिस्तान जिंदाबाद ” का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया । बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे। उन में अक्सरियत ऐसे क़ातिलों की थी जिन के रिश्तेदारों ने अफ़सरों को दे दिला कर पागलख़ाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जाएं। यह कुछ कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्यूं तक़सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है? लेकिन सही वाक़िआत से यह भी बे-ख़बर थे। अख़बारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उन की गुफ़्‌तगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आद्मी मुहम्मद अली जिन्ना है जिस को काइदे आजम कह्ते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक `इलाहिदा मुल्क बनाया है जिस का नाम पाकिस्तान है। यह कहां है , उस का मह्‌ल्‌ल-ए वुक़ू` क्या है। उस के मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागलख़ाने में वह सब पागल जिन का दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था इस मख़्मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में? अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है? अगर वह पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अरसा पहले यहीं रह्ते हुए भी हिंदुस्तान में थे । एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान, और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़ियादा पागल हो गया। झाड़ू देते देते एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टह्‌नी पर बैठ कर दो घंटे मुसल्सल तक़्‌रीर करता रहा जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया धमकाया गया तो उस ने कहा — ” मैं हिंदुस्तान में रह्‌ना चाहता हूं न पाकिस्तान में — मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा। ”बड़ी मुश्किलों के बाद जब उस का दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिन्दू सिख दोस्तों से गले मिल मिल कर रोने लगा, इस ख्याल से उस का दिल भर आया था कि वह उसे छोड़ कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।
एक एम एस सी पास रेडियो इन्जीनियर में जो मुसल्मान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रह्‌ता था यह तबदीली नमूदार हुई कि उस ने तमाम कप्‌ड़े उतार कर दफ़`अदार के हवाले कर दिए और नंग धड़ंग सारे बाग़ में चलना फिरना शुरू` कर दिया।
चन्योट के एक मोटे मुसल्मान पागल ने जो मुस्लिम लीग का सर-गर्म कार्कुन रह चुका था और दिन में पन्द्रह सोलह मर्तबा नहाया करता था यक-लख़्‌त यह आदत तर्क कर दी। उस का नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उस ने एक दिन अपने जंगले में एलान कर दिया कि वह काइदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना है। उस की देखा देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंघ बन गया। क़रीब था कि उस जंगले में ख़ून ख़राबा हो जाए मगर दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार दे कर `अलाहिदा `अलाहिदा बंद कर दिया गया। लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था जो मुहब्बत में नाकाम हो कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शह‌र की एक हिन्दू लड़्‌की से उसे मुहब्बत हो गई थी। गो उस ने उस वकील को ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस को नहीं भूला था। चुनांचे उन तमाम हिन्दू और मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था जिन्होने मिल मिला कर हिंदुस्तान के दो टुक्‌ड़े कर दिए। — उस की मह्‌बूबा हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरु हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे। उस को हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा। उस हिंदुस्तान में जहां उस की महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाह्‌ता था। इसलिए कि उस का ख्याल था कि अमृतसर में उस की प्रेक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इन्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद कर के अंग्रेज चले गए हैं तो उन को बहुत सदमा हुआ वह छुप छुप कर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तगू करते रह्‌ते कि पागलख़ाने में उन की हैसियत किस क़िस्म की होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा। ब्रेकफ़ास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए बलडी इन्डियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करना पड़ेगी? एक सिख था जिस को पागल-ख़ाने में दाख़िल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक़्त उस की ज़बान से यह `अजीब-ओ-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुन्‌ने में आते थे ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी लालटेन।” दिन को सोता था न रात को। पहरेदारों का यह कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में वह एक लहज़े के लिए भी नहीं सोया। लेटता भी नहीं था। अलबत्ता कभी कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर वक़्त खड़े रहने से उस के पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फूल गई थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद लेट कर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान,पाकिस्तान और पागलों के तबादिले के मुत्तालिक जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्‌तगू होती थी तो वह ग़ौर से सुन्‌ता था। कोई उससे पूछ्‌ता कि उस का क्या ख़्याल है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट। लेकिन बाद में ” आफ़ दी पाकिस्तान गवर्न्मन्ट” की जगह ” आफ़ दी टोबा टेक सिंघ गवर्न्मन्ट” ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है जहां का वह रह्‌ने वाला है। लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे वह खुद इस उलझावों में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिंदुस्तान में चला जाए। या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए। और यह भी कौन सीने पर हाथ रख कर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब ही हो जाएं।
इस सिख पागल के केस छिदरे हो के बहुत मुख़्तसर रह गए थे चूंकि बहुत कम नहाता था इस लिए दाढ़ी और सर के बाल आपस में जम गए थे। जिन के बाइस उस की शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। मगर आदमी बेज़रर था। पन्द्रह बरसों में उस ने कभी किसी से झगड़ा फ़साद नहीं किया था। पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे वह उस के मुत्तलिक इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं। अच्छा खाता पीता ज़मीनदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया। उस के रिश्तेदार लोहे की मोटी मोटी ज़ंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागल-ख़ाने में दाख़िल करा गए। महीने में एक बार मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैरख़ैरियत दर्याफ़्त करके चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा। पर जब पाकिस्तान,हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उन का आना बन्द हो गया। उस का नाम बिशन सिंघ था मगर सब उसे टोबा टेक सिंघ कह्‌ते थे। उस को इतना मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है,महीना कौन सा है,या कितने साल बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उस के अज़ीज़-ओ-अक़ारिब उससे मिलने के लिए आते थे तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह दफादार से कह्‌ता कि उसकी मुलाक़ात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता,बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और सर में तेल लगा कर कंघा करता,अपने कपड़े जो वह कभी इसतेमाल नहीं करता था निकलवा के पहनता और यूं सज बन कर मिलने वालों के पास जाता। वह उससे कुछ पूछ्ते तो वह ख़ामोश रहता या कभी कभार ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनकस दी बे ध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी लाल्टेन ” कह देता। उस की एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गई थी। बिशन सिंघ उस को पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देखकर रोती थी , जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बह्‌ते थे। पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंघ कहां है? जब इत्‌मीनान-बख़्‌श जवाब न मिला तो उस की कुरेद दिन-बदिन बढ़ती गई। अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी। पह‌ले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं,पर अब जैसे उस के दिल की आवाज़ भी बन्द हो गई थी जो उसे उन की आमद की ख़बर दे दिया करती थी। उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएं जो उस से हमदर्दी का इज़हार करते थे और उसके लिए फल,मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह अगर उन से पूछ्ता कि टोबह टेक सिंघ कहां है तो वह यक़ीनन उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। क्योंकि उस का ख्याल था कि वह टोबा टेक सिंघ ही से आते हैं जहां उस की ज़मीनें हैं। पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को ख़ुदा कह्‌ता था। उस से जब एक रोज़ बिशन सिंघ ने पूछा कि टोबा टेक सिंघ पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में तो उसने हस्ब-ए`आदत क़हक़हा लगाया और कहा “वह पाकिस्तान में है न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं दिया। “ बिशन सिंघ ने इस ख़ुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वह हुक्म दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो मगर वह बहुत मसरूफ़ था इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा “ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ वाहे गूरू जी दा ख़ालसा ऐंड वाहे गूरू जी की फ़तह — जो बोले सो निहाल,सत सरी अकाल।”
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंघ का एक मुसलमान जो उसका दोस्त था मुलाक़ात के लिए आया। पह‌ले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंघ ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका” यह तुम से मिलने आया है — तुम्हारा दोस्त फ़ज़ल दीन है। “ बिशन सिंघ ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फ़ज़ल दीन ने आगे बढ़ कर उसके कन्धे पर हाथ रखा”मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूं लेकिन फ़ुरसत ही न मिली, तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे, मुझसे जितनी मदद हो सकी मैंने की, तुम्हारी बेटी रूप कौर...“ वह कुछ कह‌ते कहते रुक गया । बिशन सिंघ कुछ याद करने लगा” बेटी रूप कौर ” फ़ज़लदीन ने रुक रुक कर कहा ” हां... वह...वह भी ठीक ठाक है उनके साथ ही चली गई थी। “बिशन सिंघ ख़ामोश रहा। फ़ज़लदीन ने कह‌ना शुरू किया ” उन्होने मुझ से कहा था कि तुम्हारी ख़ैर ख़ैरियत पूछ्ता रहूं — अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो — भाई बल्बेसर सिंघ और भाई वधावा सिंघ से मेरा सलाम कहना — और बहन अमरित कौर से भी...भाई बल्बेसर से कह्‌ना फ़ज़लदीन राज़ी खुशी है — वह भूरी भैंसें जो वह छोड़ गए थे उनमें से एक ने कट्‌टा दिया है — दूसरी के कट्‌टी हुई थी पर वह छह दिन की हो के मर गई...और...लाइक़ जो ख़िदमत हो कहना...हर वक़्त तैयार हूं...और यह तुम्हारे थोड़े से मरूंडे लाया हूं। “
बिशन सिंघ ने मरूंडों की पोटली ले कर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा “टोबा टेक सिंघ कहां है ?”
फ़ज़लदीन ने क़द्रे हैरत से कहा ” कहां है? — वहीं है जहां था “बिशन सिंघ ने फिर पूछा ” पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “
” हिंदुस्तान में नहीं नहीं पाकिस्तान में ” फ़ज़लदीन बौखला सा गया।
बिशन सिंघ बड़‌बड़ाता हुआ चला गया ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ दी आफ़ दी पाकिस्तान ऐंड हिंदुस्तान आफ़ दी दूर फिटे मुंह ! “तबादले के तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फ़हरिस्तें पहुंच गई थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था।।
सख़्त सर्दियां थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिन्दू सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई मुत्तलिक अफ़सर भी हमराह थे। वाघा के बार्डर पर तरफ़ैन के सुपरिंटेडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तिदाई कारवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू` हो गया जो रात भर जारी रहा। पागलों को लारियों से निकालना और दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रज़ा-मन्द होते थे, उन को संभालना मुश्किल हो जाता था,क्योंकि इधर उधर भाग उठते थे,जो नंगे थे उन को कपड़े पहनाए जाते तो वह फाड़ कर अपने तन से जुदा कर देते। कोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है,आपस में लड़झगड़ रहे हैं,रो रहे थे, बिलख रहे हैं, कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी,पागल औरतों का शोर-ओ-ग़ौग़ा अलग था और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे । पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक़ में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उंहें अपनी जगह से उखाड़ कर कहां फेंका जा रहा है। वह चन्द जो कुछ सोच समझ सकते थे ” पाकिस्तान जिंदाबाद” और ” पाकिस्तान मुर्दाबाद” के नारे लगा रहे थे। दो तीन मर्तबा फ़साद होते होते बचा, क्योंकि बाज़ मुसलमानों ओर सिखों को यह नारे सुन कर तेश आ गया था।
बिशन सिंघ की बारी आई और वाघा के उस पार मुत्तलिक अफ़सर उस का नाम रिजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उस ने पूछा ” टोबा टेक सिंघ कहां है? — पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में ? “ मुत्तलिक अफ़सर हंसा ” पाकिस्तान में “
यह सुन कर बिशन सिंघ उछल कर एक तरफ़ हटा और दौड़ कर अपने बाक़ी मांदह साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया “टोबा टेक सिंघ यहां है —” और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा _ ” ऊपड़ दी गुड़ गुड़ दी एनक्स दी बे ध्याना दी मुंग दी दाल आफ़ टोबा टेक सिंघ ऐंड पाकिस्तान “उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेक सिंघ हिंदुस्तान में चला गया है, अगर नहीं गया तो उसे फ़ौरन वहां भेज दिया जाएगा। मगर वह न माना। जब उस को ज़बरदस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दर्मियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त वहां से नहीं हिला सकेगी।
आदमी चूंकि बेज़रर था इस लिए उससे मज़ीद ज़बरदस्ती न की गई , उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और तबादले का बाक़ी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले साकत-ओ-सामत बिशन सिंघ के हल्क़ से एक फ़लक-शिगाफ़ चीख़ निकली। इधर उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और देखा कि वह आद‌मी जो पन्द्रह बरस तक दिन रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा , औंधे मुंह लेटा है। उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान! दर्मियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिस का कोई नाम नहीं था। टोबह टेक सिंघ पड़ा था।