रविवार, 30 दिसंबर 2007

पत्रकारिता

जो सोचता हूं,वो कर नहीं पा रहा
जो कर रहा हूं,उसे समझ नहीं पा रहा
जो समझ पा रहा हूं
वो कोई तसल्ली देने वाली चीज़ हर्गिज नहीं..
(पत्रकारिता के बारे में...दीपक)

का होई इ साल नया


दरअसल पिछले कुछ सालों के...अनुभवों को शब्द दें...तो लगता यही है कि...बदलता कुछ नहीं है...बस हर घटना के साथ...हर वक्त नई नियति और नया भरोसा जुड़ता रहता है...और फिर से...हर समस्या...या हर खुशी...नयी सी लगने लगती है...बात अगर किसानों की करें तो...बुंदेलखण्ड की ज़मीनों जैसी ना जाने कितनी ज़मीनें...उनकी मौत की नियति से साल भर सींची जाती रहीं...वहीं आतंकवाद के खात्मे के जुमले के साथ लोग मरते रहे...और बार बार दहशतगर्दी को खत्म करने की बातें...नए तरीके से हवा में तारी होती रहीं...अब मन नहीं करता कि नए साल के आने का जश्न मनाया जाए...क्योंकि हर साल जाते जाते कुछ ग़म यूं ही छोड़ जाता है...राजनीति पहले से ज्यादा निराश करती है...और उसमें ऐसा कुछ नहीं बचा...जिससे उम्मीदें बांधी जा सके....न्यायपालिका की तेजी में...पुलिस को बेरहमी से पिटते कानपुर के वकील याद आते हैं....वहीं पुलिसिया लाठी निर्दोष की पीठ पर हर बार पहले ज्यादा गहरे ज़ख्म छोड़ती है...जबकि मनोरंजन के फूहड़पन में साल के हिट गानो के लिए एसएमएस मांगने वाले...मीडिया की आवाज अब चिल्लाहट के सिवा कुछ नही रह गई है...ऐसे में क्या उम्मीद की जाए और किस पर भरोसा किया जाए...हर साल उम्मीदों की खुशियां मनाते शुरु होता है...और बीतते बीतते हर तंत्र को और ज्यादा कमज़ोर करके चला जाता है...आखिर क्यों याद करें बीते दो हजार सात को...क्या इसलिए कि इस साल दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र में एक लेखिका को अपनी लिखी चंद लाईने उपन्यास से हटानीं पड़ीं...या फिर हज़ारों लोगों के खून से सने हाथ एक बार फिर मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंच गए....या फिर इसलिए कि मज़दूरों और किसानों कि हिमायत करने वाले लाल झंडे का रंग...इस साल नंदीग्राम के खून से और ज्यादा सुर्ख हो गया....या इसलिए कि भूख से हुई मौतों पर चालाकी से पर्दा डालने में आलाधिकारियों ने इस साल कोई कसर नहीं छोड़ी...और शायद तभी चाय की दुकान पर बैठे उस बुजुर्ग किसान के अल्फाज़ याद आते हैं कि भईया का होई इ साल नया...हो सकता है कि ये उस किसान की निराशा हो ...लेकिन इस नाउम्मीदगी के बीच निकली तकलीफ...हम सबकी है...

मंगलवार, 25 दिसंबर 2007

सत्तर के दशक का कार्टून

बेलबॉटम, चौड़ी कॉलर वाली कमीज़ और सत्तर के दशक का चश्मा...ये सब पहने एक भाई साहब बस स्टैड पर चर्चा का विषय रोज बनते..यहां बस पकड़ने वालों को रोज सत्तर के दशक के इस कार्टून का इंतज़ार रहता..लोग खूब तफ्री लेते..तरह तरह से भाई साहब को छेड़ने की कोशिश होती..औरतें जब इस परिहास को देख कर मुस्कुरातीं तो मज़ाक बनाने वाले लोगों का साहस अचानक बड़ा हो जाता...हाथों में एक पुराना अख़बार लिए कुछ दिन पहले सुबह वो भाई साहब फिर दिखे..फुरसतिया लोगों ने अपना टाइम पास करने के लिए फिर से उन्हें छेड़ना शुरु कर दिया..हमेशा खामोश रह कर अपनी भावभंगिमा से गुस्से का इजहार करने वाले भाई साहब की आंखों में इस बार आंसू थे..रुमाल से आंसू पोछ अपनी रोज की बस पकड़ी और चलते बने...इसके बाद वो भाई साहब कई दिनों तक नज़र नहीं आए...अक्सर मजाक बनाने वालों के लिए उनका ना आना सुबह की रौनक गायब होने जैसा था....कुछ दिनों बाद पता चला कि भाई साहब किसी जमाने में सरकारी नौकरी में थे..पहनने खाने के शौकिन थे..एक हादसे में बेटी और पत्नी की मौत हो गई..सो मातम मनाने के बजाए अपने दुख को साझा करने की कोशिश में भाई साहब किसी ना किसी तरह लोगों को हंसाने की कोशिश करते...इसके लिए उन्हें कुछ भी करना पड़ता वो करते...और इसलिए वो अजीबो गरीब कपड़े पहनते..और जब लोग उन्हें देखकर हंसते तो उन्हे अच्छा लगता..लेकिन जब उन्हें पागल समझकर मजाक अपनी हदें पार करने लगा तो..उन्होने दुनिया से बहुत दूर जाने का फैसला कर डाला...पता चला कि उन्होने रविवार की रात फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है..

रविवार, 23 दिसंबर 2007

क्यों रुला रहे हो हमें

एक ही विजुअल...बार बार..एंकर की वही आवाज़...आईये हम आपको एक बार फिर से दिखाते हैं...क्या हुआ नच बलिए थ्री के फाइनल में...पहले विजुअल बिना इफेक्ट के थोड़ी देर बाद डबल विंडो में....दर्शक बोर ना हो सो ब्रेक की घोषणा हुई...इस वायदे के साथ की जब लौटेंगें तो आपको सबकुछ ठीक से दिखाएंगें...हां एक ही विजुअल बार बार देखते देखते बोरियत कुछ नए नए क्रिएटिव एड देखकर थोड़ी कम जरुर हुई...ब्रेक के बाद फिर शुरु नाटक...चलिए अब आपको दिखाते हैं कि कैसे रोयीं राखी नच बलिये के फाइनल में...दूसरा चैनल बदला तो पूरी दुनिया पर खतरे की आहट... दो चार मरे मरे से ज्योतिष विचारों में डूबे थे...लगा कि भईया अपना हो या ना हो इनका सबकुछ तबाह जरुर होने वाला है...फिर लौट कर वापस आए तो राखी अभी भी रो रही थीं...सोचा की बताओं रोने को पैसा बटोर रही है और यहां हंसने के लाले पड़े हैं...उधर दूसरे चैनल पर पूरी दुनिया को तबाह करने की मुहिम छिड़ी थी..इसी बीच पलटते पलटते तेलगु चैनल पर नजर थमी...तो एक काला सा हीरो एक साथ सौ लोगों को खुद की हड्डियां चिटका कर डरा रहा था...मैं ना डर जाऊं सो टीवी बंद कर दी...तभी बाहर से जोरदार चिल्लाने की आवाजें सुनाई पड़ीं बाहर देखा तो एक दूसरे को देख लेने की बातें चल रहीं थी...नाली को लेकर लड़ाई चल रही थी...सबकुछ नेचुरल था..क्योंकि टीवी पर नहीं था...आसपास वाले भी बड़े निष्पक्ष भाव सबकुछ देखे जा रहे थे...सभी के चेहरे पर स्वस्थ्य मनोरंजन के भाव रह रह कर उमड़ रहे थे...क्योंकि इस नाटक में ब्रेक नहीं था...विजुअल का रिपिटिशन नहीं था..सबकुछ लाइव

बकबक का मतलब

बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं...ये दलील देने के लिए नहीं कि समय नहीं था...ये कहना सरासर झूठ होगा...ये भी नहीं कहूंगा कि व्यस्त था...ये खुद के काम के साथ नाइंसाफी होगी...ये जरुर कहूंगा कि इच्छाशक्ति की कहीं ना कहीं कमी थी...और आज जब लिखने बैठा तो लगा कि पहले प्रयश्चित कर लिया जाए....दरअसल कहने को काफी कुछ था....खुब कहा भी...लोगों से खुब बतियाया भी...लेकिन बोले शब्द बांधे नहीं जाते...वो तो हवा में घुल कर कुछ देर बाद गुम हो जाते हैं...इसलिए...लगा बोलो कम लिखो ज्यादा...शब्द ब्लॉग पर रोज रोज विस्तार लेकर कम से कम परिपक्व तो हो ही जाएंगें...दरअसल बोलने को हर किसी के पास कुछ ना कुछ है...सब बोल रहे हैं...कोई कमाने के लिए तो कोई बरगलाने के लिए...इन सबके बीच में खुद का बोलना पता नहीं चलता...खुद से शायद ही हम बोल पाते हों...क्योंकि दूसरे मौका नहीं देते...सबके पास अपने अपने लॉजिक हैं...हर कोई खुद को सही साबित करने को बोल रहा है...लेकिन सवाल ये है कि इतनी बातों में सुन कौन किसको रहा है...दरअसल जो बोल रहे हैं वो सुनाना चाहते हैं और जो सुन है वो समझना नहीं चाहते...शायद तभी बाबाओं के प्रवचन की गूंज भक्तों के कानों में तभी तक रहती है जबतक बाबा सामने बने रहते हैं...ज्यों बाबा गए उनकी बातें गईं....इतनी बकबक का मतलब था कि बोलो कम लिखो ज्यादा...कम से कम पढ़ने पर खुद से थोड़ी बातें तो हो जाएंगीं....

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

सबकुछ बहा ले गई जो मौत

फिर शराब के जुबानी एक मौत की कहानी सुनने को मिली..सुबह दोस्त को फोन किया..तो पता चला की चाचा जी नहीं रहे..उनकी लाश उनके घर में पड़ी मिली..देखने वालों ने ये ही बताया कि ज्यादा शराब पीने की वजह से उनकी मौत हुई..इस मौत की खबर के साथ ही..ज़ेहन मे उनकी इकलौती बेटी का ख्याल आ गया..जिसे चाची दिल की किसी परेशानी के चलते..एक तरह से अनाथ छोड़कर दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए पहले ही जा चुकी थीं..मेरा चाची जी के घर आना जाना कई बार हुआ..इस बीच जब भी चाचा मिले या तो शराब के नशे में मिले या फिर शराब ना मिल पाने के गम में..अपने पति की शराब की लत छुड़ाने के लिए.. डाक्टर से लेकर तांत्रिक तक.. सारे करम कर चुकी..चाची जी चाचा की आदत के आगे हार मान चुकी थीं..नवें दर्जे में पढ़ने वाली बेटी की जिंदगी और उसके भविष्य की चिंता अक्सर चाची जी के चेहरे पर शिकन बन छलक आया करती थी..जो करना था खुद करना था..छोटे से घर को संवारने से लेकर..बेटी को ज्यादा से ज्यादा पढ़ाने लिखाने तक..सबकुछ..चाचा जी की तनख्वाह..ऑफिस वाले उनके हाथों में ना देकर किसी तरह चाची तक पहुंचा दिया करते थे..ऐसे में घर तो संवर जाता था लेकिन अक्सर शराब के लिए पैसे मांगने पर चाचा और चाची में नोंकझोंक होती रहती थी..लेकिन बेटी की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारियों के चलते चाची जी, चाचा की गालियां और कभी कभी मार चुपचाप सहन कर लिया करती थीं..पर एक दिन चाची भी नियति से हार गईं..दिल में जोर का दर्द हुआ..और अचानक उनकी आंखे हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गईं..उनके जाने के बाद चाचा बेलगाम हो गए..शराब और भी ज्यादा होती गई..पास पड़ोस के लोग बताते हैं कि शराब के चलते मौत कई बार चाचा जी के करीब से होकर गुजरी..और आखिरकार मौत चाचा को उनके घर से दबोचकर अपने साथ ले गई..वो भी नशे की हालत में..देखते देखते..एक घर जहां मुझे चाची जी की वजह से एक उम्मीद दिखा करती थी..पहले अनाथ हुआ और आज चाचा जी के जाने के बाद हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गया..उनकी बेटी..चाची जी के जाने के बाद से ही..अपने नेकदिल रिश्तेदारों के यहां रह रही है..मैने उसे इस बीच जब भी देखा चुपचाप देखा..ना कोई शिकायत ना कोई ज़िद..मां के जाने के बाद से ही किसी अपने के दुनिया में ना रहने के एहसास..चाचा जी के जाने के बाद..शायद उसके दिल में कहीं गहरे से उतर चुका है

रविवार, 7 अक्तूबर 2007

एक नॉन सेन्स कविता

बहादुर,
बचपन से रहा
लेकिन घर की चौखट के भीतर..
बातों ही बातों में
क्रांति का बिगुल
कई बार फूंका..
लेकिन बिगुल की आवाज़
दोस्तों के कानों में चुटकुले बन कर
कहीं खो गई..
समाज बदलने भी कई बार निकला
लेकिन खुद के घर का
समाजशास्त्र बिगड़ गया
पत्रकार बना
तो एक दिन आर्थिक तंगी के चलते
खुद खबर बन गया..
राजनीति में करियर बनाने की सोची
तो मेरा शून्य क्रिमिनल रिकार्ड
आड़े आ गया
फिलहाल
भगवा ड्रेस में
अधर्म में धर्म की तलाश का दौर जारी है
बहादुर
बचपन से रहा
बस उसके एक सफल प्रयोग की तैयारी है

मासूम आंखें

जी भर रो लेने के बाद
बच्चों की मासूम
आंखें..
पहले से कहीं ज्यादा
चमकदार हो जाती हैं...
उन्हें
नहीं आती
बड़ों की तरह
आंसुओं को छुपाने की
बहादुरी..
वो नहीं जानती
बड़ों की तरह
आंखों की बनावटी भंगिमाएं..
नफरतों
के पैमानों से
अन्जान होती हैं
बच्चों की आंखें..
इसलिए
शायद चमकदार होती हैं
बच्चों की आंखें..

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2007

ठगी...अपराध नहीं

ठगी
अब कोई अपराध नहीं..
बदल चुकी है
अब ठगी की परिभाषा..
लोगों के सुखों में अब शामिल है
ठगे जाने का सुख..
बाजार के रास्तों पर हैं.
अब ठगों की
नई नई स्कीमें..
बच्चों की किताबों से लेकर
मरीजों की
जिंदगी के सौदों के बीच
हर जगह है
ठगी का बाजार
मजदूरों के पसीने
से लेकर
किसानों की उम्मीदों
तक हर जगह
है
ठगी का व्यापार
शायद
इसलिए नहीं है
ठगी कोई
अपराध

सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

ब्लॉग..पर कविता

कोशिशों की
छोटी छोटी कहानियों
से बनी
एक लंबी कहानी हैं
ये ब्लॉग..
इन कहानियों में
कहीं रवीश का कस्बा है
तो कहीं
प्रियदर्शन की बातें हैं...
कहीं समीर लाल हैं
तो कहीं वाह वाह करते
संजीव तिवारी के
अल्फाज़ हैं...
राजेश रोशन के सपनों
कि कहानी हैं
ये ब्लॉग....
वाकई
कोशिशों की
छोटी छोटी कहानियों
से बनी
एक लंबी कहानी हैं
ये ब्लॉग....
रितेश गुप्ता की
भावनाएं
हैं यहां....
रवीन्द्र प्रधान के
लफ्ज़ों की मिठास
है यहां...
ढाई आखर की जुबानी
है यहां...
कोशिशों की
छोटी छोटी कहानियों
से बनी
एक लंबी कहानी हैं
ये ब्लॉग..

रविवार, 30 सितंबर 2007

आम आदमी हूं...

लोग कहते हैं कि अभी
मैं नासमझ हूं..
दुनिया देखने की
समझ नहीं हैं मुझमें...
लेकिन
मै भांप लेता हूं
लोगों के गलत
इरादे..
वायदों से आती
झूठ की बू
को पहचानता हूं मैं...
बाज़ार के समानों
में देख लेता हूं
फायदों के पनपते
अमानवीय रिश्ते को ..
पल पल मरती
अभिव्यक्ति के बीच
एक कोने की तलाश में
दिख जाते हैं
मुझे लोग
लेकिन फिर भी
लोग कहते हैं...
मैं नासमझ हूं
क्योंकि
मैं एक
आम आदमी हूं...

शनिवार, 29 सितंबर 2007

चेहरों कि झुर्रियां

मेरे मां बाप के चेहरों
कि
झुर्रियां
अक्सर मुझे
मेरी जिम्मेदारियों का
एहसास कराती हैं..
ये झुर्रियां बयां करती हैं
उन तमाम
जिंदगी के किस्से..
जहां रिश्तों के साए
में..
दुलार और फिक्र
के बीच..
एक कोना मेरा भी है..

सोमवार, 17 सितंबर 2007

योग कहीं भी कभी भी

एक लंबी सांस लीजिए
थोड़ा धैर्य रखिए,
दूसरे के अपशब्दों को
उसके संस्कारों का
छिछलापन मानकर
भूल जाईये,
उनके बारे में सोचिए
जो आपको पसंद हैं,
उनकी खुशी को
महसूस करिए
जिनकी सरलता से
आपको खुशी मिलती हो,
अब सांस छोड़ दीजिए
और
खुद के अंदर छिपी
अथाह शांति को
महसूस कीजिए

रविवार, 16 सितंबर 2007

फ़िराक की याद में

(फ़िराक साहब पर बात करने से पहले उनके कुछ शब्द)

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
मेरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान-ओ-ईमान है
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
(नज़रें : eyes, glances; क़ातिल : murderer; […]


रात भी, नींद भी, कहानी भी
हाए! क्या चीज़ है जवानी भी
दिल को शोलों से करती है सैलाब
ज़िन्दगी आग भी है, पानी भी
हर्फ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूँ मैं तेरी ज़ुबानी भी
पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेज़बानी भी
(मेहमानी : to visit as a guest; […]
(हर्फ : words) (शोला : fire ball; सैलाब : flood)

रविवार, 2 सितंबर 2007

फायदे का एहसास

शहर में फायदों की बातें
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
इन फायदों के बीच
नुकसान का एहसास
सबको है,
शहर की भीड़ में
खो जाने का एहसास
सबको है,
बाजार के बीच
ठगे जाने का एहसास
सबको है,
भागती सड़क पर
कुचलने का एहसास
सबको है,
फैशन के नये दौर में
पुराने हो जाने का एहसास
सबको है,
शहर में फायदों की बातें
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
फायदों के बीच
अपनो से बिछड़ने का एहसास
सबको है

दहशतगर्द

उन्हें नहीं मालूम थे
तुम्हारे इरादे,
वो नहीं जानते थे
कि
तुम्हारी दुश्मनी
किससे है,
वो जानना भी नहीं चाहते थे
कि तुम ऐसे क्यों हो
लेकिन
फिर भी
तुमने उन्हे मार दिया
और
बता दिया
कि
तुम कायर हो
तुम्हारा
कोई भगवान नहीं
तुम्हारा
कोई अल्लाह नहीं
तुम कायरता की बैशाखी
पर
चलने वाले दहशतगर्द हो
(शनिवार,२५ अगस्त को हैदराबाद में बम धमाकों में तमाम मौतों के बाद लिखी कविता,ये शहर मेरे काफी करीब है,शायद अपने लखनऊ से भी ज्यादा)

शनिवार, 25 अगस्त 2007

वक्त

वक्त
हाथों से
फिसलता है
रेत की तरह
कोई करता है
उसे थामने की
कोशिश
तो कोई
खोल देता है
अपनी मुट्ठी
और
यहीं बदल जाती है
वक्त की पहचान
जिंदगी और मौत में

शनिवार, 11 अगस्त 2007

खामोशी

एक शाम बातें कर रही थी
आने वाली रात से
जाने वाले दिन से
अंधेरा बार बार डराता था
वो बयां करता था
रात की वीरानी को
वो सुनाता था भटके
मुसाफिरों के किस्से
जब उजाले की बारी आयी
तो वो कुछ नहीं बोला
शाम समझ गयी
इस खामोशी का इशारा
कि
उसे भी पार करनी है
ये रात
खामोशी के साथ

संवेदना की मौत

काफी समय पहले पढ़ा था कि आने वाले समय में अच्छा समान तो मिलेगा लेकिन अच्छे लोग नहीं मिलेंगें.तब समझना मुश्किल था लेकिन अब सब समझ में आता है.समान में तो क्वालिटी और वैरायटी आ गयी लेकिन लोगों में वैरायटी गायब होती चली गयी.दुर्घटना को लेकर संवेदना खत्म हुई .बलात्कार की घटनाएं खबर तक सिमट गईं.बमों की आवाज़ें मरने वालों की तदाद से सुनी जाने लगीं.इस बीच हमारी संवेदनाएं ना जाने कब मर गयीं.इन संवेदनाओं का मर जाना खतरनाक था लेकिन उससे ज्यादा खतरनाक था उन संवेदनाओं के बाद भी सांसें लेना.संवेदना की मौत के बाद उसकी कब्र पर उगी पैसा कमाने की भूख जैसे अपने साथ सबकुछ बहा ले गयी.लोग अपना काम छोड़ कर दूसरों के काम में टांग अड़ाने लगे.सबने दूसरों को गाली देकर खुद को काबिल साबित करने की आसान रास्ता खोज लिया.ऐसे में कुछ खामोश हो गये और कुछ जरुरत से ज्यादा बोलने लगे.कुछ का काम इससे भी नहीं चला तो वो उग्र हो गये.लेकिन किसी ने उन संवेदनाओं को टटोलने की कोशिश नहीं कि जो फिराक साहब को अक्सर चुप चुप रह कर रोने को मजबूर करती रही थी.

शुक्रवार, 10 अगस्त 2007

थोड़ी सी मायूसी

क्या वाकई हम हार रहे हैं. कल तसलीमा नसरीन के साथ हैदराबाद में जो कुछ हुआ निराश करता है.अभिव्यक्ति की आजादी पर जिस तरह हमला हुआ उसने साफ कर दिया कि वाकई ध्रर्म का जरुरत इस अधकचरे समाज को नहीं है.ऐसे में हमारी कुछ फिल्में थोड़ी सी दिलासा जरुर देती हैं जहां एक बार फिर बेहतर कहानियां सामने आ रही है.साहित्य शायद उस भाषा में आम लोगों से बात नहीं कर पा रहा जिस भाषा में आज मुन्नाभाई जैसी फिल्में बोल रही हैं.गांधी को तमाम सहित्य उस तरह से आम जन तक नहीं पहुंचा पाये जिस तरीके से मुन्नाभाई जैसे किरदार ने इसे कर दिखाया.ऐसे में आम लोगों तक कुछ बेहतर पहुंचाने की उम्मीद फिल्मों से ही की जा सकती है. आज चक दे इंडिया पर्दे पर आ जायेगी. उस संदेश के साथ जिसके जरिए हम तसलीमा के साथ हुए बर्ताव की तकलीफ कुछ हद तक कम कर सकते हैं.फिल्म संदेश देती है कि आप अगर हारते हैं तो इसका मतलब साफ है कि आपका सर्वश्रेष्ठ भी आपके विरोधी से अच्छा नहीं है शायद यही बात साहित्य से जुड़े लोगों पर भी लागू होती है. हम कलम से भी उस मानसिकता को नहीं हरा सके जो तसलीमा जैसी महिला लेखकों पर हाथ उठाती है.

रविवार, 5 अगस्त 2007

कन्हैया की कहानी part 1

(ये कहानी करीब चार साल पहले लिखी थी। कहानी में जिन जगहों का जिक्र है वो लखनऊ के आसपास के इलाके हैं। इटौंजा गांव लखनऊ दिल्ली राजमार्ग पर पड़ता है । कहानी के पात्र भले काल्पनिक हों लेकिन मैं आपको ये यकीन दिलाता हूं कि ये कहानी सच की जमीन पर लिखी गयी है )
बदहवास पसीने से तरबतर कन्हैया रेलवे स्टेशन तक पहुंचने के लिए जी जान लगा देना चाहता था । हालांकि स्टेशन आना जाना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी लेकिन ये पहली बार था जब उसकी दौड़ किसी ट्रेन के छूटने के डर के साथ थी । ट्रेन छूटने की सोच से कन्हैया का रोयां कांप उठता था । दो दिन से उसके पेट ने अन्न का एक दाना नही देखा था । दौड़ते दौड़ते कभी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता तो कभी पांव साथ देने से इंकार कर देते । लेकिन उसके कानों में कभी अपने दोनों छोटे छोटे बच्चों की भूख से बिलखती आवाजें सुनाई देतीं तो कभी बीमार बीबी वसुधा के दर्द से कराहने की आवाजें । उन तीनों ने भी तो दो दिनों से भर पेट खाना नहीं खाया था और वो वसुधा उसे छोड़कर कौन था उसका इस दुनिया मे । खेती ने लगातार तीसरे साल उसका कड़ा इम्तहान लिया था बस उसी वक्त उसने तय कर लिया था कि और इम्तहान नहीं देगा वो । खेती छोड़ मजूरी(मजदूरी)करेगा और वसुधा का इलाज करायेगा। ये सारी बातें जैसे उसके अन्दर नई जान डाल देतीं। खैर इटौंजा स्टेशन दिखते ही मन को सुकून हुआ। इतनी भीड़,कन्हैया सहम सा गया । इस भीड़ का भी अपना कितना अलग अलग चरित्र होता है,कभी तो वो हमारे लिए उल्लास का विषय होती है तो कभी लगता है कि कहीं ये भीड़ हमें कुचल ना डाले। अपनी कुल इक्कीस रुपये की जमा पूंजी से सात रुपये का टिकट लेने में जैसे कन्हैया की जान निकल गयी। खैर कुछ कमाने ही तो जा रहा था वो। स्टेशन पर उसे गांव के दूसरे किसान भी दिखे लेकिन हाथों में ब्रुश और कन्नी(मजदूरी के लिए प्रयोग किये जाने वाले औजार)लेकर कितने अनजाने लग रहे थे सभी । खैर संकोची कन्हैया ने उनसे पूछ ही लिया क्या इन औज़ारों के बिना लखनऊ में काम नहीं मिलता । लागत है पहिल बार जाए रहे हो लखनऊ...हमरे साथ चलौ कौनो काम तो मिल ही जाई.. ट्रेन आते ही जैसे भगदड़ मच गयी। वहां जमा हर कोई ट्रेन की ओर इस तरह लपका जैसे की वो उसकी जिंदगी की पहली और आखिरी ट्रेन हो। खैर कन्हैया को एक मजदूर के साथ ट्रेन के डिब्बे की छत पर जगह मिल गयी। ट्रेन के अंदर बैठने के किस्से तो सुने थे लेकिन ट्रेन की छत पर बैठने का अनुभव वाकई काफी सुखद लगा था उसे। ठंडी हवा के साथ बार बार उसकी यादों में उसके बच्चे और वसुधा आते। उसे याद आता जब पिछले दशहरे के मेले से वो बच्चों और वसुधा के लिए नये कपड़े लाया था । नयी साड़ी देखकर वसुधा की आंखें खुशी से छलक आयीं थीं। तभी ट्रेन की हार्न ने उसे यादों से यथार्थ में जा ढकेला। मोहिबुल्लापुर स्टेशन आ चुका था ट्रेन के रुकते ही दूसरे मजदूरों के साथ कन्हैया भी ट्रेन से उतर आया और गांव के दूसरे मजदूरों के साथ अड्डे की तरफ चल पड़ा। थोड़ी दूर इंजीनियरिंग कालेज चौराहे पर मजदूरों का बड़ा झुण्ड खड़ा था। सभी किसी ना किसी गांव से आये थे। यहां सभी को इंतजार मजदूरी का था । वहां फैली एक अजीब सी खामोशी तब टूटती जब कोई ट्रैक्टर वहां आता और उनसे से कुछ मजदूरों को वहां से ले जाता । उस ट्रैक्टर में चढ़ने के लिए मारा मारी मचती और गांव में एक दूसरे को पहचानने वाले तक एक दूसरे को धक्का देकर ट्रैक्टर पर चढ़ जाते और कन्हैया वहां ठगा सा सभी का चेहरा देखता रहता। एक एक कर ज्यादात्तर मजदूर ट्रैक्टर से लदकर कहीं चल दिये। सूरज काफी चढ़ चुका था और मजदूरी की आस भी धीरे धीरे खत्म होते देख बचे खुचे मजदूर वहां से जाने लगे। वहां से जाने वाले आखिरी मजदूर ने कन्हैया के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि चलो भैया दिन चढ़ गया अब क्या काम मिलेगा। ये सुनकर कन्हैया के शरीर पर जैसे बिजली गिर पड़ी। लगा कि क्या सारे सपने टूट जायेंगें। क्या वसुधा कभी ठीक नहीं हो पाएगी क्या वो बच्चों को रोटी के दो निवाले कभी नहीं खिला पायेगा।

कन्हैया की कहानी part 2

तभी दूर एक मोटा सा आदमी उसकी ओर आता दिखा। वो पास आकर पान की पीक थूकते हुए बोला क्यों बे मजूरी करेगा.ये सुनकर जैसे कन्हैया को बड़ा सहारा मिला । हां साहब ऐ ही खातिर आये हैं..अच्छा देर शाम काम करना होगा और मजूरी मिलेगी दिन के तीस रुपये...कम है साहब.. कन्हैया गिड़गिड़ाया..आधे दिन के पूरे लेगा क्या..मोटे आदमी ने हिकारत भरी आवाज में कन्हैया की ओर देखते कहा..देख चलना है तो चल नहीं तो बहुत पड़े हैं तेरे जैसे..इतना कह कर वो मोटा आदमी वहां से चल पड़ा..लेकिन तभी कन्हैया लगभग पीछा करते हुये उस मोटे आदमी के करीब आकर बोला..साहब कहां चलना है..कुटिल मुस्कान के साथ कन्हैया की ओर देखते हुये मोटे आदमी ने उसे ट्राली में बैठने का इशारा किया.वहां से कन्हैया को एक ऐसी जगह ले जाया गया जहां बड़े पैमाने पर काम चल रहा था। कही बड़ी बड़ी दीवारें बन रहीं थीं तो कहीं असमान सी ऊंची इमारत बनाई जा रही थी..तभी एक अनजाने से आदमी ने कन्हैया को फावड़ा पकड़ाते हूये कहा कि कहा कि सुनो जहां वो गढ्ढा खोदा जा रहा है वहां जाकर साहब से पूछ लो क्या करना है और हां अगर बीड़ी वीड़ी सुलगी तो सोच लेना कुत्ते की तरह भगा दूंगा समझे...इतने कड़ुवे बोल कन्हैया ने कभी नहीं सुने थे लेकिन अपने सपनों और वसुधा के चेहरे के एक मुस्कुराहट देखने के लिए कन्हैया अपमान का ये घूंट पी गया । गढ्ढे के पास खड़ा आदमी मजदूरों से गढ्ढा खुदवा रहा था..गढ्ढे में कुछ मजदूर थे जिन्हे बाहर आने का इशारा कर उसने कन्हैया को गढ्ढा में उतरने को कहा..कहे के मुताबिक कन्हैया उस गढ्ढे में उतर गया। काम मिलने के उत्साह के आगे मानों उसकी थकान कहीं गुम हो चुकी थी। मेहनत से कन्हैया ने कभी मुंह नहीं छुपाया। चारों ओर सभी काम कर रहे थे कुछ नया बना रहे थे। गढ्ढे की गहराई करीब सात फीट हो चुकी थी। काम ज्यादा नहीं बचा था लेकिन कन्हैया का उत्साह बदस्तूर बना हुआ था। उसे पसीने की बूंद पोछते कभी वसुधा याद आती तो कभी बच्चे की किलकारियां उसके कानों में सुनाई देतीं। लेकिन तभी अंदर और आसपास की जमीन ने धंसना शुरु कर दिया। वहां खड़े मजदूर खतरे को भांपकर वहां सेजल्दी दूसरी ओर दौड़े..किसी को गढ्ढे में मौजूद कन्हैया की चिल्लाने की आवाज नहीं सुनाई दी..थोड़ी देर में मिट्टी के धंसने के साथ कन्हैया भी उसी में हमेशा के लिए दफन हो गया..हल्ला मचा..लेकिन तबतक सबकुछ खत्म हो चुका था..बताते हैं कि उस हादसे की ख़बर किसी अखबार में भी नहीं आयी.. जिन्हें इस बारे में पता था भी उनके मुंह भी चंद पैसों ने बंद कर दिये ...फिलहाल कन्हैया की गुमशुदगी की रिपोर्ट आज भी एक थाने के रजिस्टर में दर्ज है.....

तन्हाई

एक सर्द रात में
यादों के दुशाले को ओढ़ के
खामोश से तन्हा चांद को देखने निकला
फिज़ा की खुन्की चांद की तन्हाई को और
बढ़ा चुकी थी
सर्द हवाओं से खिलाफत करने मैं भी
अपनी तन्हाई का साथी तलाशने निकला
हर सिम्त एक खामोशी
जो मुझे लौट जाने को कहने लगी और बावस्ता किसी ने मेरा हाथ थाम लिया
और इशारा करने लगा फलक के सिम्त देखने को
जो नज़र गयी
तो दिल और बेचैन हो गया
दुनिया की रातों का साथी चांद
भी तो तन्हा था मेरी तरह
बेशक हम दोनो की वज़ह जुदा थी
मगर हासिल एक ही था
और हम दोनो के हाथों को थामे हुई थी
तन्हा रात
( जावेद अज़ीज, छह जनवरी २००७)

शनिवार, 14 जुलाई 2007

बहस जारी है

मोहल्ले में पार्क के आसपास सौन्दर्यीकरण कराने की योजना कुछ रिटायर लोगों के दिमाग में सूझी। चूंकि रिटायर लोगों की मोहल्ला समिति लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी थी सो इस फैसले पर काम के तरीके को लेकर पहले बहस कराने का फैसला हुआ। छह महिने से ज्यादा बीत चुके हैं बहस जारी है। सड़क अब पहले से ज्यादा उबड़ खाबड़ हो चुकी है पार्क की दीवारें दरक रही हैं। सुना है अगले महिने मोहल्ला समिति के चुनाव हैं और प्रत्याशी अपने पोस्टरों पर पार्क के आसपास सौन्दर्यीकरण कराने के वादे और नारे लिखने वाले हैं।

मंगलवार, 10 जुलाई 2007

पैसा और जिंदगी

पहले जेब खाली थी। तब सोचता था कि पैसा आ जाए। थोड़ा पैसा आया, तो लगा और आ जाए। फिर एक दिन खूब पैसा आया, तो एहसास हुआ कि जिंदगी अकेली हो गई, अब जिंदगी खाली है, जिसे पैसे से भरना आसान नहीं है।

शनिवार, 7 जुलाई 2007

हिट फार्मूला

खबर का धंधा करना और उसे लेकर संजीदा होना दो अलग अलग चीजें हैं। मेरे ख्याल से संवेदनाओं का मर जाना उतना खतरनाक नहीं जितना उन संवेदनाओं को अपनी टीआरपी के लिए कैश कराना। शायद संवेदनहीन हो चुकी खबरों की मार्केट में यही सब चल रहा है। बात मुरादाबाद की है जहां पिछले दिनों एक पति पत्नी उत्पीड़न की सुनवाई ना होने के चलते मिट्टी का तेल अपने ऊपर छिड़क कर टंकी पर चढ़ गए । ये शहर में पहली बार नहीं था इससे पहले भी कुछ लोग टावर पर चढ़कर जान देने की नौटंकी कर चुके थे । माहौल मीडिया के लिहाज से हिट था सो कैमरों के फ्रेम में इन्हे कैश कराने का पूरा इंतजाम हुआ । एक अति उत्साही चैनल में तो ये खबर घटने से पहले ही फ्लैश हो गयी। फिलहाल कुछ घंटे चले इस नाटक को पुलिस और आलाधिकारियों के आश्वासन ( जिन पर यकीन करने की परंपरा फिलहाल खत्म हो चुकी है ) के बाद खत्म किया गया और उन दोनो को टंकी से उतार गया। यहां तक की घटना हर चैनल के चौखटे पर खबर बनी। लेकिन इसके बाद मीडिया के कैमरों के इतर जो घटा वो वाकई चौंका देने वाला था। पता चला कि काफी समय से ये पति पत्नी अपने यहां के ब्लाक प्रमुख के उत्पीड़न से परेशान थे। बर्फ बेचकर पेट की आग बुझाना इनके लिए नाकाफी था और ऊपर से उत्पीड़न का खौफ। सो अपनी फरियाद सरकारी दफ्तरों में उन्होने कई बार सुनाने की कोशिश की । लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई । इस बीच एक रिपोर्टर के कान में इस दम्पत्ति की कहानी पड़ी। खबर बड़ी नहीं थी। बस मसाला इतना था कि एक फरियादी जो न्याय के इंतजार में दर दर भटक रहा है । लेकिन उस रिपोर्टर के दिमाग में हिट स्क्रिप्ट पहले से तैयार थी। बस खोज थी स्क्रिप्ट में फिट होते दर्दनाक कैरेक्टर की। सीन शोले फिल्म का चुराया हुआ था जो आजकल टीवी पत्रकारिता का एक हिट आइटम भी था। उस पत्रकार ने पहले दम्पत्ति को उत्पीड़न के जंजाल से निकालने का सपना दिखाया और फिर कहानी में दर्द उकेरने के लिए मिट्टी का तेल छिड़ककर दोनो को पानी की टंकी पर चढ़ा दिया। इसके बाद जो हुआ उससे टीवी का शो तो हिट हो गया लेकिन बेचारे उन दोनो को आत्महत्या की कोशिश करने के जुर्म में जेल भेज दिया गया। दरअसल यही कड़ुवी सच्चाई पत्रकारिता से जुड़े किसी भी संजीदा जेहन को झकझोरती है। लेकिन टीआरपी की गणित में ऐसी स्टोरी हिट हैं और ऐसा करने वाला पत्रकार आज का सफल पत्रकार है।

कुछ नया

आदमी
हमेशा पहले से ज्यादा
मेहनत कर सकता है
कम से कम
कुछ दिनों की बंधी
दिनचर्या के बाद तो
यही लगने लगता है
कि कुछ बदलना चाहिए
पता नहीं
आदमी ज्यादा काम करता है
या वो माहौल बदलता है
लेकिन मानसिकता बदलने पर
जिंदगी में कुछ दिन
कुछ नया तो होता ही है
जिन्दगी जितनी पुरानी पड़ती जाती है
आदमी में कुछ नया करने की
ख्वाहिश उतनी बढ़ती है
खुद को छोड़ भी दें
क्योंकि ये तो अपने लिए है
अपनी ही बात है
फिर भी दूसरों के लिए
हर छोटा बड़ा आदमी जवाबदेह है
सबका काम हर एक से जुड़ा है
यही वजह है
कि हम कभी नया करना बेहतर करना
छोड़ नहीं सकते
( दीपक, २५ सितम्बर.०५ )

सोमवार, 2 जुलाई 2007

मां

मां का चेहरा
बार बार स्मृतियों मे उभरता है
जब कभी
तनाव से सिर दुखता है
किसी की बात बुरी लगती है
या उम्मीद धुंधली होती है
वे याद आती हैंे
सिर्फ वही याद आती हैं
मेरी मां हजारों मंाओं की तरह
गांव की एक
साधारण लड़की रही होगीं
बाद में उम्मीदों के बोझ
और समझौतों से दबी मां
हमेशा परिवार के लिए
खुद को भूल गयी होगीं
(दीपक की कविताएं)

रविवार, 24 जून 2007

खबर क्या है

मुझे लगता है कि समाचारों को लेकर टीवी चैनल्स का नजरिया काफी संकुचित हुआ है। हमारे पास खबरें हैं लेकिन उसे लेकर हमारी कोई सोच नहीं रह गयी है । धरने और आम आदमी खबरों से गायब होता जा रहा है। शायद वो बाजार का हिस्सा नहीं है इसीलिये