मंगलवार, 25 दिसंबर 2007

सत्तर के दशक का कार्टून

बेलबॉटम, चौड़ी कॉलर वाली कमीज़ और सत्तर के दशक का चश्मा...ये सब पहने एक भाई साहब बस स्टैड पर चर्चा का विषय रोज बनते..यहां बस पकड़ने वालों को रोज सत्तर के दशक के इस कार्टून का इंतज़ार रहता..लोग खूब तफ्री लेते..तरह तरह से भाई साहब को छेड़ने की कोशिश होती..औरतें जब इस परिहास को देख कर मुस्कुरातीं तो मज़ाक बनाने वाले लोगों का साहस अचानक बड़ा हो जाता...हाथों में एक पुराना अख़बार लिए कुछ दिन पहले सुबह वो भाई साहब फिर दिखे..फुरसतिया लोगों ने अपना टाइम पास करने के लिए फिर से उन्हें छेड़ना शुरु कर दिया..हमेशा खामोश रह कर अपनी भावभंगिमा से गुस्से का इजहार करने वाले भाई साहब की आंखों में इस बार आंसू थे..रुमाल से आंसू पोछ अपनी रोज की बस पकड़ी और चलते बने...इसके बाद वो भाई साहब कई दिनों तक नज़र नहीं आए...अक्सर मजाक बनाने वालों के लिए उनका ना आना सुबह की रौनक गायब होने जैसा था....कुछ दिनों बाद पता चला कि भाई साहब किसी जमाने में सरकारी नौकरी में थे..पहनने खाने के शौकिन थे..एक हादसे में बेटी और पत्नी की मौत हो गई..सो मातम मनाने के बजाए अपने दुख को साझा करने की कोशिश में भाई साहब किसी ना किसी तरह लोगों को हंसाने की कोशिश करते...इसके लिए उन्हें कुछ भी करना पड़ता वो करते...और इसलिए वो अजीबो गरीब कपड़े पहनते..और जब लोग उन्हें देखकर हंसते तो उन्हे अच्छा लगता..लेकिन जब उन्हें पागल समझकर मजाक अपनी हदें पार करने लगा तो..उन्होने दुनिया से बहुत दूर जाने का फैसला कर डाला...पता चला कि उन्होने रविवार की रात फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है..