मंगलवार, 11 मई 2010

पत्रकारिता के गुनहगारों को फांसी दो !


There can be no press freedom if journalists exist condition of corruption, poverty or fear
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट का पन्ना इसी सच के साथ खुलता है। फेडरेशन की चिंता अरब और मिडिल ईस्ट में पत्रकारिता पर पड़ी बेड़ियों से होते हुए रुस तिब्बत श्रीलंका और नेपाल तक जाती है। एशिया पैसिफिक में पत्रकारिता के जोखिम पर ये साइट खुलकर बात करती है। भारत के पत्रकारों पर कट्टरपंथियों और तमाम दबे छिपे दबावों का जिक्र भी एक पन्ने पर है। बहरहाल भारत के पत्रकारों की खुद ऐसी कोई साइट नहीं है। जो साइट हैं भी वो केवल यूनियन के चुनावों और गोष्ठियों के सहारे पत्रकारिता की चिंता के नाटक तक सीमित हैं। कहीं कोई ईमानदार कोशिश नहीं दिखती। प्रेस काउंसिल और तमाम तरह के गिल्ड की क्या हैसियत है वो किसी से छिपी नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया टीआरपी से अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है तो अखबारों को पेड न्यूज के कीड़े ने काट रखा है। चैनलों की दुकानदारी में उनके मालिक मुनाफे और सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बनाने का रास्ता तलाश रहे हैं। इस उलझन में नए पत्रकारों के लिए ना तो स्पेस ही बची है और ना ही उनका भविष्य बाकी है। पत्रकारिता के तथाकथित पुरोधा फिलहाल अपनी जेबें भरने में जुटे हैं। इस चिंता से बेखबर कि देश में पत्रकारिता का शून्य आगे चलकर कैसे भरा जाएगा। एक डाक्टर के बनने में आठ से दस साल का वक्त लगता है। इंजीनियरिंग के लिए भी चार से पांच साल की कठिन पढ़ाई होती है। तो फिर पत्रकारिता के लिए क्रैश कोर्स क्यों। ये भारत की पत्रकारिता का वो जोखिम है जो पत्रकारों पर हमलों और कैमरे तोड़े जाने की घटना से बड़ा है। सोचने की जरुरत है कि आम लोगों की आवाज उठाने वाले पत्रकार अभी तक ऐसा दबाव समूह क्यों नहीं बना पाए जिससे सत्ता प्रतिष्ठान की रुह कांपती हो। जिससे बेलगाम चैनल मालिक घबराते हों। जो दबाव निरुपमा के मसले पर बनाया जा रहा है वो चैनल से बेतरतीब ढंग से बाहर कर दिए गए पत्रकारों के लिए क्यों नहीं बनाया जा सकता। इंसाफ तो सबके साथ होना चाहिए।