रविवार, 30 सितंबर 2007

आम आदमी हूं...

लोग कहते हैं कि अभी
मैं नासमझ हूं..
दुनिया देखने की
समझ नहीं हैं मुझमें...
लेकिन
मै भांप लेता हूं
लोगों के गलत
इरादे..
वायदों से आती
झूठ की बू
को पहचानता हूं मैं...
बाज़ार के समानों
में देख लेता हूं
फायदों के पनपते
अमानवीय रिश्ते को ..
पल पल मरती
अभिव्यक्ति के बीच
एक कोने की तलाश में
दिख जाते हैं
मुझे लोग
लेकिन फिर भी
लोग कहते हैं...
मैं नासमझ हूं
क्योंकि
मैं एक
आम आदमी हूं...

शनिवार, 29 सितंबर 2007

चेहरों कि झुर्रियां

मेरे मां बाप के चेहरों
कि
झुर्रियां
अक्सर मुझे
मेरी जिम्मेदारियों का
एहसास कराती हैं..
ये झुर्रियां बयां करती हैं
उन तमाम
जिंदगी के किस्से..
जहां रिश्तों के साए
में..
दुलार और फिक्र
के बीच..
एक कोना मेरा भी है..

सोमवार, 17 सितंबर 2007

योग कहीं भी कभी भी

एक लंबी सांस लीजिए
थोड़ा धैर्य रखिए,
दूसरे के अपशब्दों को
उसके संस्कारों का
छिछलापन मानकर
भूल जाईये,
उनके बारे में सोचिए
जो आपको पसंद हैं,
उनकी खुशी को
महसूस करिए
जिनकी सरलता से
आपको खुशी मिलती हो,
अब सांस छोड़ दीजिए
और
खुद के अंदर छिपी
अथाह शांति को
महसूस कीजिए

रविवार, 16 सितंबर 2007

फ़िराक की याद में

(फ़िराक साहब पर बात करने से पहले उनके कुछ शब्द)

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
मेरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान-ओ-ईमान है
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
(नज़रें : eyes, glances; क़ातिल : murderer; […]


रात भी, नींद भी, कहानी भी
हाए! क्या चीज़ है जवानी भी
दिल को शोलों से करती है सैलाब
ज़िन्दगी आग भी है, पानी भी
हर्फ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूँ मैं तेरी ज़ुबानी भी
पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेज़बानी भी
(मेहमानी : to visit as a guest; […]
(हर्फ : words) (शोला : fire ball; सैलाब : flood)

रविवार, 2 सितंबर 2007

फायदे का एहसास

शहर में फायदों की बातें
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
इन फायदों के बीच
नुकसान का एहसास
सबको है,
शहर की भीड़ में
खो जाने का एहसास
सबको है,
बाजार के बीच
ठगे जाने का एहसास
सबको है,
भागती सड़क पर
कुचलने का एहसास
सबको है,
फैशन के नये दौर में
पुराने हो जाने का एहसास
सबको है,
शहर में फायदों की बातें
बहुत सुनी हैं
लेकिन,
फायदों के बीच
अपनो से बिछड़ने का एहसास
सबको है

दहशतगर्द

उन्हें नहीं मालूम थे
तुम्हारे इरादे,
वो नहीं जानते थे
कि
तुम्हारी दुश्मनी
किससे है,
वो जानना भी नहीं चाहते थे
कि तुम ऐसे क्यों हो
लेकिन
फिर भी
तुमने उन्हे मार दिया
और
बता दिया
कि
तुम कायर हो
तुम्हारा
कोई भगवान नहीं
तुम्हारा
कोई अल्लाह नहीं
तुम कायरता की बैशाखी
पर
चलने वाले दहशतगर्द हो
(शनिवार,२५ अगस्त को हैदराबाद में बम धमाकों में तमाम मौतों के बाद लिखी कविता,ये शहर मेरे काफी करीब है,शायद अपने लखनऊ से भी ज्यादा)