शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिल्ली से तू तू मैं मैं

दिल्ली वाले जश्न मनाने में उस्ताद हैं..मौका दीजिए फिर देखिए नाचेंगे दारू पीएंगे...हुड़दंग मचाएगें पंजाबी और हरियाणवी में चीखेंगे चिल्लाएंगे...३१ की शाम को जश्न में डूबी दिल्ली के जाम में फंसा तो होश ठिकाने आ गए...कनाट प्लेस पर जाम...इंडिया गेट पर ट्रैफिक बंद...बड़ी मुश्किल से घर पहुंचने का रास्ता मिला...हुड़दंग देखकर लगा की एक से सब बदल जाएगा...दिल्ली की सड़कों पर जाम नहीं लगेगा...शीला पानी का रेट कर देंगी..मनचले लड़कियों पर फब्तियां कसना बंद कर देंगे...दारु पीकर गाली देने की परम्परा खत्म हो जाएगी...लेकिन कुछ नहीं हुआ १ से ७ की सुबह एक जैसी थी...दिल्ली में मुझे आए फरवरी में दो साल हो जाएंगे...दो सालों में दिल्ली में केवल दो काम होते देख रहा हूं...मेट्रो का विस्तार और कॉमनवेल्थ की तैयारी...बाकी कुछ अपनी गति से चल रहा है ट्रैफिक से लेकर लो फ्लोर बस तक...शीला को भी अब दिल्ली की भीड़ से एतराज होने लगा है...और होना भी चाहिए...उनका मन तो राजठाकरे की तरह बिहारियों और यूपी के लोगों को दिल्ली से भगाने का करता है...लेकिन मजबूरी है...बस सलाह देकर रह जाती हैं...शीला जी अंग्रेजी बोलती हैं...मीठा बोलती हैं...इसलिए कोई ज्यादा परवाह नहीं करता है...मीडिया सर पर सवार है...सो शीला जी के कुछ कहने का मतलब है खबर...फिलहाल दिल्ली की दुर्दशा के बीच लखनऊ बहुत याद आता है...शराब का कल्चर अभी परदे में है...आपको टेम्पो और रिक्शे वाले पाउच (कच्ची दारू) पीते दिख जाएंगे...दुबली पतली सड़कें और हल्के फुल्के जाम में फंसे बाबू लोग...ज्यादातर लोग अपने बच्चों को डॉक्टर इंजीनियर बनाने का सपना पाले जिंदगी काट रहे हैं...मायावती का एजेंडा शीला जी से बिल्कुल अलहदा है...मायावती ठोस काम में यकीन करती हैं जैसे पत्थर के हाथी पत्थर के पार्क वगैरह वगैरह...ठीक ठाक सड़क पर सड़क बनवाना विकास की निशानी है...सड़क में सारा विकास समाया हुआ है...चौराहों पर अब और ज्यादा मूर्तियों की गुंजाइश नहीं बची है...कई महापुरुष वेटिंग में जिनके लिए पार्क बनाने की सूरत तलाशी जा रही है...लखनऊ विकास प्राधिकरण के लोग जगह तलाशने में जुटे हैं...सारा एजुकेशन सिस्टम कोचिंग तक सिमट कर रह गया है...यूनिवर्सिटी से रिसर्च की कम हंगामे की खबर ना आए तो लगता है कि यूनिवर्सिटी खुली ही नहीं...टेम्पो वाले अट्ठन्नी के लिए ना लड़ें तो समझिए आपका सफर बेकार है...हर साल तमाम सपनों में मेट्रो का सपना भी लखनऊ वाले पिछले चार पांच साल से देख रहे हैं...उसी में हम सब खुश हैं... वहां अभी भी दिल्ली की तरह भागदौ़ड़ नहीं है...छोटी सी दुनिया है...दिल्ली की सर्दी और जाम के बीच लखनऊ याद आ रहा था...वैसे भी दिल्ली को कोसने में बड़ा मजा आता है...शीला जी सुन लें तो शहर से भाग जाने का फरमान जारी कर दें...वैसे भी हम जैसों पर पहले ही भड़की हुई हैं...