(ये कहानी करीब चार साल पहले लिखी थी। कहानी में जिन जगहों का जिक्र है वो लखनऊ के आसपास के इलाके हैं। इटौंजा गांव लखनऊ दिल्ली राजमार्ग पर पड़ता है । कहानी के पात्र भले काल्पनिक हों लेकिन मैं आपको ये यकीन दिलाता हूं कि ये कहानी सच की जमीन पर लिखी गयी है )
बदहवास पसीने से तरबतर कन्हैया रेलवे स्टेशन तक पहुंचने के लिए जी जान लगा देना चाहता था । हालांकि स्टेशन आना जाना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी लेकिन ये पहली बार था जब उसकी दौड़ किसी ट्रेन के छूटने के डर के साथ थी । ट्रेन छूटने की सोच से कन्हैया का रोयां कांप उठता था । दो दिन से उसके पेट ने अन्न का एक दाना नही देखा था । दौड़ते दौड़ते कभी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता तो कभी पांव साथ देने से इंकार कर देते । लेकिन उसके कानों में कभी अपने दोनों छोटे छोटे बच्चों की भूख से बिलखती आवाजें सुनाई देतीं तो कभी बीमार बीबी वसुधा के दर्द से कराहने की आवाजें । उन तीनों ने भी तो दो दिनों से भर पेट खाना नहीं खाया था और वो वसुधा उसे छोड़कर कौन था उसका इस दुनिया मे । खेती ने लगातार तीसरे साल उसका कड़ा इम्तहान लिया था बस उसी वक्त उसने तय कर लिया था कि और इम्तहान नहीं देगा वो । खेती छोड़ मजूरी(मजदूरी)करेगा और वसुधा का इलाज करायेगा। ये सारी बातें जैसे उसके अन्दर नई जान डाल देतीं। खैर इटौंजा स्टेशन दिखते ही मन को सुकून हुआ। इतनी भीड़,कन्हैया सहम सा गया । इस भीड़ का भी अपना कितना अलग अलग चरित्र होता है,कभी तो वो हमारे लिए उल्लास का विषय होती है तो कभी लगता है कि कहीं ये भीड़ हमें कुचल ना डाले। अपनी कुल इक्कीस रुपये की जमा पूंजी से सात रुपये का टिकट लेने में जैसे कन्हैया की जान निकल गयी। खैर कुछ कमाने ही तो जा रहा था वो। स्टेशन पर उसे गांव के दूसरे किसान भी दिखे लेकिन हाथों में ब्रुश और कन्नी(मजदूरी के लिए प्रयोग किये जाने वाले औजार)लेकर कितने अनजाने लग रहे थे सभी । खैर संकोची कन्हैया ने उनसे पूछ ही लिया क्या इन औज़ारों के बिना लखनऊ में काम नहीं मिलता । लागत है पहिल बार जाए रहे हो लखनऊ...हमरे साथ चलौ कौनो काम तो मिल ही जाई.. ट्रेन आते ही जैसे भगदड़ मच गयी। वहां जमा हर कोई ट्रेन की ओर इस तरह लपका जैसे की वो उसकी जिंदगी की पहली और आखिरी ट्रेन हो। खैर कन्हैया को एक मजदूर के साथ ट्रेन के डिब्बे की छत पर जगह मिल गयी। ट्रेन के अंदर बैठने के किस्से तो सुने थे लेकिन ट्रेन की छत पर बैठने का अनुभव वाकई काफी सुखद लगा था उसे। ठंडी हवा के साथ बार बार उसकी यादों में उसके बच्चे और वसुधा आते। उसे याद आता जब पिछले दशहरे के मेले से वो बच्चों और वसुधा के लिए नये कपड़े लाया था । नयी साड़ी देखकर वसुधा की आंखें खुशी से छलक आयीं थीं। तभी ट्रेन की हार्न ने उसे यादों से यथार्थ में जा ढकेला। मोहिबुल्लापुर स्टेशन आ चुका था ट्रेन के रुकते ही दूसरे मजदूरों के साथ कन्हैया भी ट्रेन से उतर आया और गांव के दूसरे मजदूरों के साथ अड्डे की तरफ चल पड़ा। थोड़ी दूर इंजीनियरिंग कालेज चौराहे पर मजदूरों का बड़ा झुण्ड खड़ा था। सभी किसी ना किसी गांव से आये थे। यहां सभी को इंतजार मजदूरी का था । वहां फैली एक अजीब सी खामोशी तब टूटती जब कोई ट्रैक्टर वहां आता और उनसे से कुछ मजदूरों को वहां से ले जाता । उस ट्रैक्टर में चढ़ने के लिए मारा मारी मचती और गांव में एक दूसरे को पहचानने वाले तक एक दूसरे को धक्का देकर ट्रैक्टर पर चढ़ जाते और कन्हैया वहां ठगा सा सभी का चेहरा देखता रहता। एक एक कर ज्यादात्तर मजदूर ट्रैक्टर से लदकर कहीं चल दिये। सूरज काफी चढ़ चुका था और मजदूरी की आस भी धीरे धीरे खत्म होते देख बचे खुचे मजदूर वहां से जाने लगे। वहां से जाने वाले आखिरी मजदूर ने कन्हैया के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि चलो भैया दिन चढ़ गया अब क्या काम मिलेगा। ये सुनकर कन्हैया के शरीर पर जैसे बिजली गिर पड़ी। लगा कि क्या सारे सपने टूट जायेंगें। क्या वसुधा कभी ठीक नहीं हो पाएगी क्या वो बच्चों को रोटी के दो निवाले कभी नहीं खिला पायेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें