मैने निराशा में जीना सीखा है,निराशा में भी कर्तव्यपालन सीखा है,मैं भाग्य से बंधा हुआ नहीं हूं...राममनोहर लोहिया
सोमवार, 12 जनवरी 2009
मेरा कबूलनामा दिल से 4
ये ऐसा जाल है जहां बुरी तरह फंस चुका हूं...लगता है कि नियति खुशियों पर कुण्डली लगा कर बैठी है...एक कदम आगे बढ़ता हूं तो चार कदम पीछे खींच दिया जाता हूं...कुछ सोचना चाहता हूं लेकिन सोचने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं...अपनों के सामने किसी गुनहगार की तरह नजरें चुराने का मन करता है...अपने आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए पेपर के कुछ कोटेशन नोट करता हूं...लेकिन वो भी दिमाग के कोने में ज्यादा देर टिककर नहीं बैठते...घर से मिलने का जी करता है...लेकिन एक घटिया सी नौकरी ( अब मानने लगा हूं क्योंकि दिल्ली में जो काम कर रहा हूं उसने कभी सूकून नहीं दिया) पांव रोक लेती है... हर महीने देर सबेर आशंकाओं के साथ आ जाने वाली सैलरी का कोई सदुपयोग हो सका हो याद नहीं आता... जिस कलम को ताकत समझ कर पत्रकारिता करने उतरा...उसकी स्याही अब सूखने लगी है... लोगों की तकलीफों को समझने की कोशिश अब ऑफिस में होने वाले उठापटक समझने में जाया कर रहा हूं...पढ़ाई में जैसा था उससे तो अंदाजा भी नहीं था की नौकरी कभी मिलेगी भी...लेकिन पहले फीचर एजेन्सी और फिर अखबार में जो कलम घिसी उससे दो पैसे का आदमी बन गया... एक कहानी की छपास ने मीडिया का कोर्स करने के दौरान ही फीचर एजेन्सी के दफ्तर पहुंचा दिया...यही मेरी पत्रकारिता की शुरुआत थी...लेकिन तीन साल बीत जाने के बाद इस वक्त खुद पत्रकारिता के आगे सवाल बनकर खड़ा हूं... खुद को पत्रकार कहने में झिझक महसूस होती है... कहने और सुनने के लिए अब ना तो कुछ मौलिक बचा है...और ना ही वो जज्बा बाकी है कि कुछ नया गढ़ सकूं...जिंदगी कविता की उन अधूरी लाइनों की तरह रह गई है...जहां ठहराव ना होते हुए भी सबकुछ ठहर सा गया है...
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
देखिये जिंदगी जीना का नाम है .......
अक्सर ऐसे दौर आते हैं-धीरज धरें-गुजर जायेगा. शुभकामनाऐं.
एक टिप्पणी भेजें