कम से कम मुझे इतना तो यकीन है कि मैं कोई कवि नहीं हूं... और ना ही शब्दों की तुकबंदी करने की काबलियत ही है मुझमें... लेकिन पिछले तीन या चार महिने से तहलका की साइट पर दो कविताओं का एहसास अटका पडा है... कविताएं अब तक भले पुरानी सी हो गई हों...लेकिन कमेंट की ताजगी ने उन्हें बासी होने से बचाए रखा है...कविताओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी आ चुकी हैं...पढ़कर खुशी होती है...लिखे शब्द जब बोलते हैं तो अच्छा लगता है...पिछले दिनों पढ़ने लिखने का सिलसिला थोड़ा कम हुआ है (सच कहूं तो काफी कम हो गया है थोड़ा कम कह कर खुद को तसल्ली देने की बेवजह कोशिश करता रहता हूं)...कविताएं भावनाओं का बहाव होती हैं...उन्हें रोक पाना खुद के बस में भी नहीं होता..कविताओं में शब्द तर्कों से कहीं आगे जाकर खुद नए तर्क गढ़ देते हैं...फिलहाल जब कभी खुद को तसल्ली देने का मन करता है तो तहलका पर अटकी पड़ी कविता पढ़ लेता हूं...अच्छा लगता है लेकिन यकीन मानिए फिर भी खुद को कवि मानाने की गुस्ताखी नहीं करता...
1 टिप्पणी:
आप खुद को नहीं मानते, आपकी मरजी. हम तो आपको कवि मानते हैं. बधाई.
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