
गोरखपुर के तुर्कमान की वो कोठी...जिसमें कभी फ़िराक साहब का बचपन बीता..आज वहां सन्नाटा है..पुरानी सी दिखने वाली इस कोठी से वैसे तो फ़िराक साहब ने बरसों पहले अपना नाता तोड़ लिया था...फिर भी उनकी जिंदगी के एक आईने की तरह उनकी ये पुरानी कोठी...आज भी खड़ी है...हालांकि तुर्कमान में ये कोठी एक ऐसी मनहूस कोठी की तरह जानी जाती है...जिसने अपने मालिकों का सूकून कभी नहीं देखा..फिराक तो इसे मनहूस कोठी कह कर चले गए...लेकिन फिराक साहब से जिसने इस कोठी को खरीदा..उसका सूकून भी इस कोठी ने यूं छिना..कि पूरे तुर्कमान में इस कोठी के मनहूसियत के किस्से चर्चा में आ गए...आज इस कोठी के मालिक के तीनों बेटे दिमागी तौर पर पागल हो चुके हैं...कोठी में चल रहे एक स्कूल से आने वाले पैसे से इनकी जिंदगी की गाड़ी खीच रही हैं...लोग बताते हैं कि रघुपति सहाय यानी फिराक साहब से इस कोठी को खरीदने वाले हज़रात किसी जमाने में गोरखपुर की नामी शख्शियत हुआ करते थे...लेकिन कोठी के साथ उनका नाम जुड़ते उनकी जिंदगी का सुकून हमेशा के लिए छिन गया...खुद कोठी के लोग मानते हैं कि इस कोठी ने अपने हर मालिक कि किस्मत आंसुओं से लिखी...कोठी कि इसी बदनसीबी को भांप कर शायद फिराक ने इससे तौबा करना ही मुनासिब समझा था..पर आज फ़िराक साहब की पहचान रही..ये कोठी मनहूस कोठी के नाम से पुकारी जाती है...और यही है इस कोठी का नसीब..
2 टिप्पणियां:
सुबोध जी ... सबसे पहले तो शुक्रिया.. कि आपने रोज़ लिखना शुरू कर दिया है... शायद आपको नहीं पता लेकिन मैं आपके ब्लॉक को पढ़ कर अपने दिन की शुरूरात करती हू...और चाहती हूं कि रोज़ मुझे कुछ ज्ञानवर्जन आटिकल आपके ब्लॉक पर पढ़ने के लिये मिले... बहुत अच्छा फिर आपने लिखा...कल फिर जरूर लिखे...
फिराक को खोजते हुए आप तक पहुंचा तो उनका पता मिला, जहां वे नहीं रहते अब. मुझे शक है कि फिराक कोठी की मनहूसियत से पीछा छुडाकर भागे होंगे. वे मनहूसियत को रौनक में बदलने की कीमियागीरी जानते थे. फिराक ने उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडा होगा. तभी वे हमारी अंधेरी कोठरी के रौशनदान हैं. यकीनन वहीं होंगे फिराक.
शुक्रिया
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