बुधवार, 15 जुलाई 2009

पिंक स्लिप

कितनी बार टूटा होगा वो
कितनी बार संभाला होगा उसने खुद को
कितनी बार तसल्ली दी होगी
उसने अपने आप को
फिर भी बीमार मां का ख्याल
अपने घर के छप्पर से टपकने वाले पानी की दिक्कत
अपने बाबू जी के गर्व के ढह जाने का मलाल
उसे बार बार तोड़ता होगा
उसे जवाब देना होगा अपने उस गांव को भी
जिसने अभी तक खूब नखरे सहे उसके
क्या कहेगा वो उन दोस्तों से
जिनकी दोस्ती को बीच मझधार में छोड़कर
वो आ गया था देश के सबसे बड़े शहर
लेकिन कम्बख्त वो शहर
परायेपन का एहसास ढूंसता रहा उसके भीतर
हर पहचान के साथ
मकान मालिक की पहचान नत्थी करनी पड़ी उसे
नौकरी के चंद पैसों से सबकुछ खरीद पाने के गुमान के साथ
सूकुन ना खरीद पाने का मलाल सालता रहा उसे
फिर भी तनख्वाह के पैसों को हर महीने गांव भेजते हुए वो
गांव से दूरी का मलाल कम कर लेता
लेकिन अब उस नौकरी की तसल्ली भी जाती रही
पिंक स्लिप लगा दी गई उसके माथे पर
नौकरी जाने के बाद
अब शहर भी मांगने लगा है उससे रहने का हिसाब
पैसे देते वक्त मकानमालिक के चेहरे पर रहने वाली मुस्कान भी
अब बनिए के तकादे सी हो गई है
मंहगाई के बीच रहने की जद्दोजहद करता वो
टूट रहा है या कहिए टूट चुका है
( बेहद तकलीफ में लिखी गई कविता..)

5 टिप्‍पणियां:

Anil Pusadkar ने कहा…

मैने पिंक स्लिप के शिकार लोगो का दर्द देखा है और इसे आज फ़िर से महसूस कर रहा हूं। वाकई बेहद तक़लीफ़ हुई होगी इसे लिखने में।सलाम करता हूं आपको बेहद कडुवी सच्चाई को ईमानदारी और दमदारी से लिखने के लिये।

mehek ने कहा…

bahut hi marmik rachana,dard har lafz se bayan hokar dil tak pahunch jata hai.

sushant jha ने कहा…

ओह...सुवोधजी...मुझे एहसास हो रहा है कि किन हालातों में ये कविता लिखी गई है।

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत मार्मिक रचना है ..पिंक स्लिप मिलनेवाले लोगों के दर्द का सही चित्रण किया है आपने !!

बेनामी ने कहा…

सुबोध जी...
मज़ा आ जाता है.... आपको पढ़कर ... लगता है...कि अभी कही पत्रकार जिंदा है... आपके शब्द एक एक कतरा दुख का बयान कर रहे थे... वाकई ये पिंक स्लिप न जाने कितनो के अब तक घर उजाड़ गई और कितनो के अभी और उजाड़ने की फिराक में दरवाजे की चोखट पर दस्तक दे रही है....