मंगलवार, 7 जुलाई 2009

प्रभात जी का हलफनामा


(प्रभात जी बेहद संजीदा इंसान...प्रभात जी अपने ब्लॉग हलफनामा में इस बार कुछ ऐसा लिख गए हैं...जो झकझोरने वाला है...उनसे पूछ कर उनका लिखा अपने ब्ल़ॉग पर डाल रहा हूं...क्योंकि ये आवाज कहीं ना कहीं खुद की भी लगती है)

मित्रों को मजाक लगता है.कुछ ज्यादा संवेदनशील मित्र इसे काम का दबाव मानते हैं.कुछ ऐसे भी हैं जो इसे बकवास करार देंगे.दरअसल मेरी ख्वाहिश ही कुछ ऐसी है जिसे लोगबाग गंभीरता से नहीं लेते.मैं वाकई गांव वापस लौट जाना चाहता हूं.इसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं है.शुरू शुरू में ये ख्याल एक लहर की तरह आया.लेकिन अब गाहे बिगाहे परेशान करता है.दावे के साथ कह सकता हूं कि इस ख्याल की वजह नास्टेल्जिया नहीं है.गांव में जाकर कोई सामाजिक आर्थिक क्रांति करने का इरादा भी नहीं.बस गांव में जाकर बसना चाहता हूं.हालाकि वहां से कभी उजड़ा हूं, ऐसा भी नहीं.मैं तो शुद्ध कस्बाई हूं.लेकिन गांव करीब था इसलिए आना जाना लगा रहा.अब नए सीरे से गांव में बसने को जी चाहता है.वैसे ही जैसै मेरे पूर्वज बसे होंगे पहली बार.मैं जानता हूं ये फैसला इतना आसान नहीं. जीवन यापन का सवाल एक बार फिर मुंह बाए खड़ा होगा.इसके अलावा कई साल दिल्ली जैसे शहर में गुजारने के बाद ठेठ गांव में जाकर रहने की अपनी चुनौतियां होंगी.दिक्कतें होंगी इतना जानता हूं.फैसले में हो रही देरी भी इसी वजह से है.लेकिन सच्चाई यही है कि इस शहर में होने की एक भी वजह मेरे पास नहीं है.किसी भी दूसरे प्रवासी की तरह इस शहर ने मेरी भी पहचान सालों पहले खत्म कर दी थी.पढाई लिखाई तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन अब इस शहर का क्या करूं.कुछ ना करते करते एक दिन मैने खुद को इस शहर में रोजगार करते पाया.इस शहर ने मुझे रोजगार दिया है और इसके एवज में मुझसे हरेक चीज ले ली है जो मेरी अपनी होती थी.यहां तक कि मेरी आदतें भी.कई महिने गुजर गए, गालिब को नहीं पढ़ा.श्मशेर मेरे सामने धूल फांकते उदास बैठे रहते है.कमोबेश मेरे घर में कुछ सालों से उपेक्षा के ऐसे ही शिकार हैं मुक्तिबोध रघुवीर सहाय धूमिल और मजाज.यकीन मानिए जिन्दगी बड़ी ही नीरस हो चली है.कुछ इसकी वजह मेरे काम का अपना स्वभाव भी है.लेकिन काम करने की मजबूरी समझ में नहीं आती.किसी फरमाबर्दार नौकर की तरह अपने काम को अंजाम देता हूं.मैं भी किसी शाह का मुसाहिब बन के इतराना और काम से मुंह चुराना चाहता था.कर नहीं पाया.इसलिए अपने काबिल मित्रों की शिकायत भी नहीं करता.मेहनत के बल पर अपने आर्थिक हालात बेहतर करने का हौसला देर तक कायम रखा, लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता.मेरे मामले में भी नहीं हुआ.नतीजा, फाकेमस्ती ना सही लेकिन गुरबत का दौर आज भी जारी है.अपने सुबहो शाम अपने काम के नाम करके, गधा बन गया हूं.हालाकि इसी काम की बदौलत कई गधे सफलता के शिखर पर हैं.खैर ये तो अपनी अपनी काबिलियत और किस्मत की बात है.मेरे दिन नहीं फिरे, ना सही.लेकिन तब इस शहर में होने का औचित्य क्या है.खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए...सवाल ये है कि किताबों ने क्या दिया मुझको.कुछ नहीं.एक बेहद अतार्किक और बेमकसद सी जिन्दगी.दोस्तों इसी जिन्दगी से भागना चाहता हूं.पहली बार हालात से भागना चाहता हूं.मैं गांव लौट जाना चाहता हूं,अपने खेतों में जहां किसी ने, कभी गुलाब की फसल उगाने की कामना की थी.यकीन कीजिए गुलाब, खबरों से ज्यादा अहमियत रखते हैं (घोर निराशा के मूड में)
प्रस्तुतकर्ता प्रभात रंजन

कोई टिप्पणी नहीं: