एक शाम बातें कर रही थी
आने वाली रात से
जाने वाले दिन से
अंधेरा बार बार डराता था
वो बयां करता था
रात की वीरानी को
वो सुनाता था भटके
मुसाफिरों के किस्से
जब उजाले की बारी आयी
तो वो कुछ नहीं बोला
शाम समझ गयी
इस खामोशी का इशारा
कि
उसे भी पार करनी है
ये रात
खामोशी के साथ
4 टिप्पणियां:
अद्भुत!!!
दार्शनिक चिंतन…।
वाह!!!
गहरा चिंतन-सुबह और रात के बीच शाम है या शाम और सुबह के बीच रात या रात और शाम के बीच सुबह!! देखने के नज़रिये हैं सारे. दिव्याभ भाई सही कह रहे हैं-दार्शनिक चिंतन.
अदभुद कल्पना!!
bahut khoob..accha likha hain aapne
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