शनिवार, 11 अगस्त 2007

खामोशी

एक शाम बातें कर रही थी
आने वाली रात से
जाने वाले दिन से
अंधेरा बार बार डराता था
वो बयां करता था
रात की वीरानी को
वो सुनाता था भटके
मुसाफिरों के किस्से
जब उजाले की बारी आयी
तो वो कुछ नहीं बोला
शाम समझ गयी
इस खामोशी का इशारा
कि
उसे भी पार करनी है
ये रात
खामोशी के साथ

4 टिप्‍पणियां:

Divine India ने कहा…

अद्भुत!!!
दार्शनिक चिंतन…।

Udan Tashtari ने कहा…

वाह!!!

गहरा चिंतन-सुबह और रात के बीच शाम है या शाम और सुबह के बीच रात या रात और शाम के बीच सुबह!! देखने के नज़रिये हैं सारे. दिव्याभ भाई सही कह रहे हैं-दार्शनिक चिंतन.

Siddharth Rai ने कहा…

अदभुद कल्पना!!

Ashish Maharishi ने कहा…

bahut khoob..accha likha hain aapne