सोमवार, 29 दिसंबर 2008

मेरा कबूलनामा ३...दिल से


बाबा और दादी
तारीख २५ दिसम्बर थी..साल १९९२ था..बाबा के गुजरने की खबर आई..मुझे याद है हम क्रिकेट खेल रहे थे (थोड़ा थोड़ा याद है) हमें किसी ने आकर बताया कि फैजाबाद चलना है...कहा तो ये गया कि बाबा की तबीयत काफी खराब है...लेकिन मुझे उसी वक्त कुछ खटका लग गया...बाबा ने हम भाईयों से कभी प्यार से दो लफ्ज नहीं बोले...लेकिन वो एक अच्छे इंसान थे...पूजा पाठ करते थे...ईमानदार थे...और सबसे बड़ी बात थी उनकी गांव नें सभी लोग इज्जत करते थे...इतने सालों बाद भी उनका चेहरा मेरे जेहन में है...लेकिन उनसे कभी उतनी आत्मीयता नहीं हो पाई...जितनी मेरी दादी से थी...दादी का नाम मनराजी देवी था...बहुत पूछने पर बहुत शरमा कर वो अपना नाम बताती थी...वो बिल्कुल पढ़ी लिखी नहीं थी...उन्हे ना तो घड़ी देखना आता था...और ना ही दुनियादारी से ही कोई मतलब था...उनके होने या ना होने का कोई फर्क कम से कम घर के लोगों के बीच कभी नहीं दिखा...लेकिन मैने उनकी आंखों में ममता देखी...बड़े पापा या चाचा के आने पर वो दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती थी...लेकिन उनकी इस ममता को कभी पुचकार नसीब नहीं हुई...बाबा और दादी के बीच कभी बात हुई हो याद नहीं आता...शायद उनको लेकर यही उपेक्षा मुझे दादी के करीब लाती थी...वो मेरी दादी थी...जिनकी गोद में सर रख देता था तो बड़ी देर तक सर सहलाती थी.. उनकी बातें समझ में नहीं आती थी फिर भी सुनता था...उनको ए बी सी डी सिखाता था...वो हंसती थी..टूटी फूटी जुबान में बतती थी कि उन्होने अंग्रेजों को देखा था....लेकिन इससे ज्यादा उन्हें कुछ नहीं पता था...शायद घर की चारदीवारी ने उन्हे उतनी सहूलियत नही दी कि वो कुछ जान पाती...घर पर लोग कहते थे कि उनमें समझ कम है...लेकिन वो मेरी दादी थी..उनके बारे में आज सोचता हूं तो आंखे भर आती हैं...आज भी अफसोस होता है कि उनके आखिरी वक्त मैं उनके साथ नहीं था...लेकिन ये जरुर कबूल करता हूं कि उन्हें दुनिया से और न्याय मिलना चाहिए था...दरअसल ये बातें मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आपकी जिंदगी बहुत सारी चींजों से बनती है...आपकी जिंदगी के एक एक पात्र का आप पर असर होता है...बाबा और दादी मेरी जिंदगी का ऐसा ही हिस्सा हैं...लोग बचपन में मेरी दयालुता देखकर जब मुझे अपने बाबा की तरह बताते थे तो मुझे अच्छा लगता था...और जब दादी से मेरे लगाव की बात कोई करता था...तो भी मुझे अच्छा लगता था...साफ था कि कहीं ना कहीं मेरे बाबा और दादी का हिस्सा मेरे अंदर गहरे तक था...

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सुबोध जी

आपके परिवार से मिलकर अच्छा लग रहा है... साथ ही इसे पता चल रहा है...कि आप कितने संजीदा इंसान है...लेकिन साथ ही इस बात का दुख भी हुआ...कि आज आपने दिल से नहीं लिखा...सुबोध जी अच्छा है...कि आप लिखने को इतना टाइम दें रहे है...लेकिन ये तब और अच्छा हो जायेगा ..अगर आप रोज इसके साथ हमें कुछ राजनैतिक हलचल से भी रू ब रू कराये.. कि क्या हो रहा है... और क्यो हो रहा...इससे क्या फायदे है...और क्या नुकसान क्योकि हमें राजनिति के बारें में बहुत कुछ समझ नहीं है...प्लीज़ मेरी इस दरख्वाज को पुरा करने की कोशिश जरूर करें...

Ritu Raj Gupta ने कहा…

सुबोध जी,
बहुत अच्छा ... आपने मुझे भी अपनी दादी की याद दिला दी ... दरअसल मेरा मानना है कि एक व्यक्ति की जिंदगी में अगर मां-बाप अगर घर की छत की तरह होते हैं तो बाबा-दादी घर के उस कोने की तरह,, जो सिर्फ आपका और सिर्फ आपका होता है ... जहां आप अपनी जिंदगी से जुड़ी कोई भी बात share कर सकते हैं ... कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही था ... मेरे बाबा तो तब चले गये थे जब मैं करीब दस साल का रहा होउंगा ... लेकिन उनका प्यार आज भी याद है ... दादी का प्यार खूब मिला ... आज भी याद है कि अकेली होने के बावजूद जब उन्हें पता लगता था कि मैं उनसे मिलने आ रहा हूं तो इतना बूढ़ा शरीर होने के बावजूद वो मेरी पसन्द की चीजें बनाकर रखती थीं ... जब हौंसला टूटता तो ऐसी हिम्मत बंधाती थीं कि फिर से लड़ने के लिए खड़ा हो जाता था ... I really miss them. ...